जीवन के विविध रंगों का कोलाज . . . राहें मिल गुनगुनातीं
डॉ. शैली जग्गीसमीक्षित पुस्तक: राहें मिल गुनगुनातीं
लेखक: वीणा विज ‘उदित’
प्रकाशक: मातृभारती प्रकाशन, अहमदाबाद (गुजरात)
पेपरबैक: 153 पेज
मूल्य: ₹179.00
ISBN: 978-9391584603
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डॉ वीणा विज ‘उदित’ का चौथा काव्य संग्रह ‘राहें मिल गुनगुनाती’ मातृ भारती प्रकाशन अहमदाबाद (गुजरात) से फरवरी 2024 में प्रकाशित 86 कविताओं, कुछ एक शे'र और दोहों का 153 पृष्ठ का संग्रह है। कलाकार, साहित्यकार और कवयित्री डॉ. वीणा विज का बहुआयामी व्यक्तित्व उनकी कविताओं की रचना धर्मिता में भी दिखाई देता है।
संग्रह में जीवन के लगभग हर पहलू पर कविता मिल जाती है। जिनमें राष्ट्र-प्रेम, प्रकृति, शृंगार, समाज, नारी विमर्श, धर्म-संस्कृति, युग बोध, सम्बन्ध, गृह-विरह, वैज्ञानिकता और आधुनिकता, भाषा-प्रेम, बाल कविता, भाव कविता, ग़ज़ल, नज़्म, शे'र और दोहे; सभी कुछ तो समाहित है। लेकिन उस पर भी प्रकृति और राष्ट्र प्रेम सर्वाधिक हावी रहा है।
दरअसल वीणा जी स्वयं में ही एक युग का प्रतिनिधित्व करती हैं। तो उनके अनुभवों की पिटारी भी तो उतनी ही संपन्न होगी। देश के विभाजन में शैशव बीता तो विस्थापित परिवार के संघर्ष को भी भोगा। सो उस पीढ़ी के जीवट, जिजीविषा और सर्वस्व खोकर भी तिनका-तिनका इकट्ठा कर नीड़ बनाने का हुनर इस कवयित्री को घुट्टी में ही मिला है। इसलिए राष्ट्र प्रेम और सकारात्मक आशावादी दृष्टि का दमन न कभी उन्होंने छोड़ा और न ही उनकी रचनाओं ने। लिखती हैं:
बाट जोह रही है आँखें,
उसे मंज़र के सजने का।
सूर्य बन चमकेगा भारत,
जब दुनिया के आसमान पर। (राष्ट्रप्रेम)
देश की वैज्ञानिक उपलब्धियों पर उनकी क़लम लहलहा उठती है:
चंद्रयान पर चढ़ ‘इसरो’ नाम से हिंदी पहुँची,
चंद्रमा की सरज़मीं पे छपकर चहकी।
नवयुग की आशाओं का हुआ आरंभ,
भारत बन गया है अंतरिक्ष का स्तंभ। (चंद्रमा पर हिंदी)
संग्रह में ‘गणतंत्र दिवस’, ‘मेरा तिरंगा’, ‘जय भारती’, ‘जाऊँ वारी-वारी’ आदि कविताओं में भी उनका राष्ट्र प्रेम गदगदा उठा है।
वीणा जी के जीवन का एक लंबा अर्सा कश्मीर की वादियों में गुज़रा है। वर्तमान में भी वह वर्ष के कुछ एक महीने वहीं बिताती हैं। सो प्रकृति से उनका सहचरी का सा नाता रहा है। ‘राहें मिल गुनगुनाती’ संग्रह में प्रकृति के आलंबन और उद्दीपन दोनों रूपों को अभिव्यक्ति मिली है, लिखती हैं:
बर्फ़ीली वादियाँ-ठिठुरती कंपकंपाएँ,
भोर की आमद में ख़ुशी से मुस्कान!
अलसाए थे रात में जीवंत प्राण धारी,
सवेरा नव स्फूर्ति चेतना पुनः लाए। (सवेरा जब आए)
संग्रह में ‘गज़ब हो गया’, ‘पनाह माँगती है’, ‘शीश वंदन’, ‘ऋतु वसंत रँगीली आई’, ‘प्रतीक्षारत मन’, ‘खंजनी बदरी’, ‘चांदनी’, ‘शिशिर’, ‘सावन आयो रे'; आदि कविताओं में वीणा जी का प्रकृति प्रेम मुखरित हुआ है। यूँ भी कवि हृदय सदैव ही प्रकृति की ओर आकर्षित हुए हैं।
वीणा जी लेखिका और कवयित्री से पहले कलाकार रही हैं। कला और शृंगार का तो चोली-दामन का सा साथ है, दोनों परस्पर पूरक हैं। मुझे कई बार विविध काव्य गोष्ठियों में उन्हें सुनने का अवसर मिला है! अपनी शृंगारिक रचनाएँ कहते उनकी वाणी वाचिक अभिनय कर उठती है और यह गरिमामयी वरिष्ठ विदुषी से जुदा एक षोडषी का आभास दे जाती हैं। शृंगार उनकी कविताओं का भी शृंगार है पुस्तक में बहुती रचनाएँ शृंगार पर भी लिखी गई हैं, जैसे: 'चाहत का आवेग’, ‘किरचें’, ‘नेह का बहुपाश’, ‘मैं दीवानी’, ‘जुर्म-ए-इश्क़’, ‘विपुल धूप’, ‘सर्द आहें’ आदि। लेकिन इनका शृंगार मर्यादित है उफान को सहेजना उनकी क़लम ख़ूब जानती है। लिखती हैं:
उर की कमलिनी खिल उठी,
तकती मन का मधुर उद्यान।
नेह के बहुपाश में बँध कर,
सुध बुध बिसरा, भूली सकल जहान (नेह का बहुपाश)
कहा गया है कि:
केवल मनोरंजन ही न कवि का कर्म होना चाहिए।
उसमें उचित उद्देश्य का भी मर्म होना चाहिए।
कवि की अनुभूति से अभिव्यक्ति तक की यात्रा मार्ग के पत्थरों से अपनी राह बनाती हुई भी गुनगुनाती है। सो वीणा जी भी इनसे अछूती नहीं रहीं। नारी विमर्श, सामाजिक कुरीतियाँ, सम्बन्ध और उनमें आते बदलाव, युगीन समस्याएँ, धर्म-संस्कृति, गृह-विरह और उद्बोधन गीत; सभी कुछ तो उनकी रचनाओं और अलोच्य काव्य संग्रह में समाहित है। नारी विमर्श पर ‘नारी तुम अतुलनीय हो’, ‘सब्र का बांध’, बेटियाँ आदि कविताएँ हैं।
कहती हैं:
नारी तुम अतुलनीय हो,
रिश्तों की तुरपाई सेतु बनती हो।
अँधियारी रातों में युगों से जगी,
चूल्हे से अब कंप्यूटर पर टिकी।
प्रताड़ना से उद्वेलित शक्तिपुंज हो!
नारी जीवट की कुछ एक रचनाएँ भी संग्रह की शोभा बनी हैं। इसके साथ ही ‘चीरहरण’, क़हर, ‘भ्रूण हत्या एक अभिशाप’ जैसी कविताएँ भी हैं, जो नारी अपराधों के प्रतिरोध में चीत्कारती हैं। वीणा जी ने दुखों में से हँसते हुए ख़ुशियों को छान कर सँवार लिया है। सो ‘बेटियाँ’ कविता बेटियों को समर्पित करती लिखती हैं:
क्यों कर बताऊँ यह परियों जैसी होती हैं,
कड़कती ठंड में सुहानी धूप है बेटियाँ।
माँ-बाप की साँसों की रफ़्तार जो समझें,
उनके दुख दर्द की मरहम होती है बेटियाँ। (बेटियाँ)
पंजाब के जालंधर शहर में रहने वाली लेखिका ने धर्म-संस्कृति को भी सज्दा करते हुए गुरुओं पीरों की धरती को नमन किया है। ‘गुरु नानक जयंती’, ‘गुरु तेग बहादुर’ और ‘शाश्वत’ जैसी कविताएँ लिखी हैं। प्रथम गुरु के विषय में लिखती हैं:
दीन दुखी से प्रेम, नाम जपो, वंड छको-मिटाए भेद सारे।
‘एक ओंकार सतनाम’ से अंतरप्राण अंतर प्राण भरे उजियारे।
अपने नाम को सार्थक करती वीणा जी जीवन में भी उमंग, उत्साह और आशा के तार छेड़ती दीखती हैं। यह माना कि कवि और साहित्यकार हारे हुओं के साथ होता है। लेकिन यदि साहित्य में भी बार-बार जब अवसाद, कुंठा और निराशा ही उलीकी जाए तो पाठक क्यों कर इसका पाठन करें! ‘कला-कला के लिए’, ‘कान्ता सम्मत उपदेश के लिए हो’ जीवन को सुकून दे, नई ऊर्जा भरे और आधुनिक युग की उहापोह में कुछ क्षण के लिए मस्तिष्क को विश्राम तो दे! ऐसा भाव ही हमें कवयित्री की विभिन्न कविताओं में मिलता है। लिखती हैं:
बेवजह मुस्कुराने का कारण क्या है,
अरे दुखी रहकर भी गुज़ारा कहाँ है!
वैसे भी किसने कब किसके ग़म बाँटे हैं,
मेरी हँसी ने तो मेरी उम्र के नंबर काटे हैं! (मेरी मुस्कानें)
और सच में उन्हें हमेशा मुस्कुराते ही देखा है। एक ऐसी चुंबकीय मुस्कान जो दूसरों को भी खिलखिलाने का अवसर दे जाती है। संग्रह में: ‘मेरी मुस्कानें’, ‘ज़िन्दगी मेरी सोच में’, ‘हौसलों की उड़ान’, ‘नई उम्मीद’, ‘गज़ब हो गया’, जैसी कविताएँ पाठकों में स्फूर्ति का संचार करती हैं।
अस्तित्ववादी चिंतन भी इन कविताओं में कहीं-कहीं बिखरा है। क्षण बोध पर ‘वो लम्हे’, ‘श्यामल बदली’, ग्रह विरह पर ‘धूल भरी परत’, ‘यादों का मौसम’, ‘मालूम नहीं हुआ’ जैसी रचनाएँ मिल जाती हैं। बाल कविता ‘गोगी की माँ’, भाव कविता, ‘खुशी’ और ‘नमन माँ’ लिखकर आपने मातृ शक्ति को नमन किया है।
अब बात करते हैं उद्बोधन की, उद्बोधन जो पाठकों में आशा, उल्लास, उत्साह, कर्मण्यता, जिजीविषा और प्रेरणा भर दे। कहा जाए कि कवयित्री के संग्रह में उद्बोधन गीतों को सर्वाधिक जगह मिली है, तो अतिशयोक्ति न होगी। वीणा जी ने एक युग देखा है सो अपनी कृति में भी उन्होंने प्रत्येक वर्ग और आयु के पाठकों के लिए प्रेरणा और उद्बोधन गीत लिखे हैं। कवयित्री का मन विषमता और प्रतिकूलताओं में भी हारता नहीं। वह ग़मों में भी मुस्कुराना जानती हैं। निराशा में से भी आशाएँ बीन लेती है। ‘विजेता बन निकलो’, ‘कलम तलवार’, ‘हौसलों की उड़ान’, ‘एक दिए की आस’, ‘नैसर्गिक क़हर’, ‘कहने को संकट आया है (कोरोना काल पर)’, ‘नवलय’, ‘खुश है चाँद’, ‘मंगलकामनाएँ तुम्हारे लिए’, ‘होली की उमंग’, ‘मेरा भारत’ जैसे अनेक उद्बोधन गीत संग्रह की शोभा बढ़ाते हैं।
शीर्षक कविता ‘राहें मिल गुनगुनाती’ का ज़िक्र इसलिए नहीं किया क्योंकि इस वीणा की झंकार में प्रत्येक कविता सुर, लय और ताल दे रही है; तो सिर्फ़ एक की बात क्यों हो! यहाँ तो सभी रचनाएँ राह दिखा रही हैं, गुनगुना रही हैं-कभी अपने अनुभवों से तो कभी अपने शब्दों से।
भाषिक स्तर पर बात करें तो वीणा जी ने तत्सम और तद्भव दोनों प्रकार की शब्दावली का प्रयोग किया है। प्रकृति वर्णन में उनकी भाषा तत्सम और कहीं-कहीं संस्कृतनिष्ठ हो गई है, तो अधिकांश उद्बोधन गीतों में सरल, सहज तत्भव शब्दावली में लिखा गया है। भाषा का ऐसा संगम उनके पंजाब में रहने और मध्य प्रदेश में शिक्षार्जन तथा वहाँ एक लंबा अर्सा गुज़ारने का प्रभाव है। कवयित्री की कविताएँ अन्यों से ख़ुद को ऐसे अलगाती हैं कि एक सर्जक के साथ-साथ अदाकारा की रचनाओं में रचनाएँ ख़ुद संवाद करती सी महसूसती हैं।
पुस्तक में परिशिष्ट या अनुक्रम का न होना खलता है, क्योंकि संग्रह में कुछ रचनाएँ पुनः पाठ की माँग करती हैं, सो उन्हें खोजना पड़ता है। आशा करती हूँ अगली पुस्तक में इसका ख़्याल रखा जाएगा। कि वीणा जी तो सदैव गुनगुनाती हैं, नियमित लेखन करती हैं। सो पुनः उनकी किसी अन्य कृति पर चर्चा होगी, इसी आशा के साथ-शेष फिर . . .
डॉ. शैली जग्गी
अमृतसर पंजाब