मुहब्बत का ही इक मोहरा नहीं था
हस्तीमल ‘हस्ती’मुहब्बत का ही इक मोहरा नहीं था
तेरी शतरंज पे क्या-क्या नहीं था
सज़ा मुझको ही मिलती थी हमेशा
मेरे चेहरे पे ही चेहरा नहीं था
कोई प्यासा नहीं लौटा वहाँ से
जहाँ दिल था भले दरिया नहीं था
हमारे ही क़दम छोटे थे वरना
यहाँ परबत कोई ऊँचा नहीं था
किसे कहता तवज्ज़ो कौन देता
मेरा ग़म था कोई क़िस्सा नहीं था
रहा फिर देर तक मैं साथ उसके
भले वो देर तक ठहरा नहीं था
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