मैं और वक़्त
डॉ. रति सक्सेना
बचपने के हाथों ने
वक़्त को जी भर खेला
मिट्टी पर सपाट फैला
कोने से कोना मिला
तैयार की एक नाव
बेशक़ीमती चीज़ें भर
खे ले चली
पहाड़ की चोटी पर
जवानी की तत्परता ने
वक़्त को पीछे ढकेला
कंधे पर लाद ज़िन्दा लाश
हाँफते चली कुछ क़दम
अब, जब कि मैं और वक़्त
अलग हैं क़रीब-क़रीब
वक़्त की कैंची
लपलपा रही है मुझ पर
मैं देख रही हूँ
अपनी कतरनों को
कतरते हुए वक़्त को