ख़ुशियों वाली नदी

15-10-2024

ख़ुशियों वाली नदी

गोवर्धन यादव (अंक: 263, अक्टूबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

स्थूल रूप से तो वे बस में बैठे थे, लेकिन मानसिक रूप से वे अपने अतीत की चट्टानी गुफ़ा में यहाँ-वहाँ भटकते हुए लहुलुहान हुए जा रहे थे।

अभी परसॊं की ही तो बात है। सुबह की कुनकुनी धूप में बैठे वे अख़बार पढ़ रहे थे। तभी उन्हें वरवरराव आता दिखाई दिया। वरवरराव उनके गहरे मित्रों में से है। उसे आता देख वे अनुमान लगाने लगे थे कि निश्चित ही वह कोई ख़ुशख़बरी लेकर आ रहा होगा। उन्होंने तपाक से हाथ मिलाया और पास पड़ी कुर्सी पर बैठने को कहा। बैठ चुकने के बाद उसने अपनी जेब से एक पता लिखा पर्चा बढ़ाते हुए कहा, “मैं कल ही चन्द्रपुर से लौटकर आया हूँ। मैंने बेटी अनुराधा के लिए एक अच्छे वर को खोज निकाला है। घर पर बेटा और उसकी माँ मिले थे। पिता शायद कहीं बाहर गए हुए थे। बातों ही बातों में पता चला कि उन्हें एक सुशील और सुन्दर बहू की तलाश है। मैंने बिटिया के रंगरूप से लेकर, उसके एजुकेशन तक की जानकारी उन्हें दे दी है। तुम ऐसा करो, आज ही निकल जाओ . . . भगवान दत्तात्रेय की कृपा रही तो यह शुभ कार्य सम्पन्न होने में देर नहीं लगेगी . . . हाँ जाते समय बच्ची का बायोडाटा और फोटो ले जाना न भूलना।” 

उन्होंने अपने मित्र को गले से लगाते हुए कहा, “दोस्त हो तो तुम्हारे जैसा। कितना ध्यान रखते तो तुम मेरा और मेरे परिवार का!” कहते हुए उनकी आँखें भर आयीं थीं। 

 

बस से उतरकर उन्होंने ऑटो वाले से लिखित पते पर चलने को कहा। घर पहुँचकर उन्होंने कालबेल बजायी। थोड़ी देर बाद दरवाज़ा खुला। एक भद्र महिला दरवाज़े पर नमुदार हुईं। अपना और अपने मित्र का परिचय देते हुए उन्होंने अपने आने का कारण कह सुनाया। उस महिला ने उन्हें अन्दर आने और ड्राईंग रूप में बैठने को कहा और ख़ुद भी पास ही सोफ़े पर बैठते हुए अपनी नौकरानी को चाय-पानी लेकर आने को कहा। 

सारी औपचारिकताओं के बाद, उन्होंने अपनी जेब से बच्ची की फोटो तथा बायोडाटा बढ़ा दिया। उसने बड़ी बेसब्री से लिफ़ाफ़ा खोला और फोटो देखते ही कहा, “मैं कब से इतनी सुन्दर बहू की तलाश में थी।” फिर यूनिवर्सिटी के सर्टिफ़िकेट्स देखते हुए बोली, “अरे! इसने तो सारी परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में पास की है। ख़ैर, हमें कोई नौकरी-वौकरी थोड़ी ही करानी है उससे। उसे तो हम राजरानी की तरह रखेगें अपने पास।” 
लड़ेके की माँ के मुँह से बातें सुनने के साथ ही उनके शरीर में रोमांच हो आया था। अपना मनोरथ पूरा होता देख उन्होंने पूछा, “भाई साहब दिखलाई नहीं दे रहे हैं, यदि उनकी भी इस रिश्ते पर स्वीकृति की मुहर लग जाती तो कितना अच्छा होता।”

“हाँ-हाँ क्यों नहीं, आप आराम से बैठिए। मैं उन्हें भिजवाती हूँ और आपके लिए कुछ गरमा-गरम नाश्ता बनवाती हूँ,” कहते हुए वे अपनी सीट से उठ खड़ी हुई थीं।
थोड़ी देर बाद एक व्यक्ति को अपनी तरफ़ आता देख उन्होंने अनुमान लगाया था कि ये ही लड़के के पिता होंगे। देखते ही वे अपनी जगह से उठ खड़े हुए और अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए अभिवादन करने लगे थे। सारी औपचारिकता और यहाँ-वहाँ की बातों को परे रखते हुए उन्होंने मुख्य बात पर केंद्रित होते हुए अपने आने का उद्देश्य कह सुनाया।

देर तक चुप्पी साधे रहने के बाद लड़ेके के पिता ने कहा, “जोशीजी, जब हमारी पत्नी को बच्ची पसंद आ गई है तो फिर हमें किस बात पर एतराज़ हो सकता है। लेकिन मेरी सोच उससे एकदम उलट है। जब तक दोनों की कुण्डली नहीं मिलती, तब तक कुछ भी सोचना व्यर्थ है। आप कुण्डली छोड़ जाइए। मिलान के बाद ही कुछ हो सकता है।” 

जोशीजी ने दुनिया देखी थी। वे समझ गए। समझने में देर भी नहीं लगी। कि सामने वाला व्यक्ति कुछ ज़्यादा ही घाघ क़िस्म का है। दान-दहेज़ की बात सीधी-सीधी न करते हुए वह कुण्डली को लेकर टरकाना चाहता है। उन्होंने सधी चाल चलते हुए कहा, “श्रीमान, मेरे मित्र ने यहाँ से जाने के पूर्व बच्चे की कुण्डली की एक कॉपी ले ली थी। और घर से चलते समय मैंने दोनों की कुण्डलियों की मिलान एक योग्य पंडितजी से करा लिया था। राम-सीता की कुण्डलियों की तरह दोनों की कुण्डली मिलती है। दरअसल मेरी और आपकी कुण्डली मिलना ज़रूरी है। यदि यह मिल जाय तो बात आगे बढ़ सकती है।” 

अब लड़के के पिता की बारी थी। पत्ते उन्हीं को खोलने थे। बात किसी और बहाने टाली भी नहीं जा सकती थी। कुछ देर चुप्पी साधे रहने के बाद उसने कहा, “आप समझ सकते हैं कि आजकल पढाई-लिखाई कितनी महँगी हो गई है। उसे पढ़ाने-लिखाने में लाखों की दौलत ख़र्च हुई है। आप यह न समझें कि मैं अपने लिए कुछ माँग रहा हूँ। आप जो भी देंगे, वह अपने होने वाले दामाद को ही तो देंगें। मैं चाहता हूँ कि उसके स्टेटस के अनुसार उसे एक फ़ोरव्हीलर, कम से कम पाँच तोले की चेन, इतना तो कम से कम चाहिए ही। आप अपनी बच्ची को पच्चीस-पचास तोले सोने और चादीं के ज़ेवरात तो देंगे ही। दहेज़ में और क्या-क्या देना है, इसकी लिस्ट मैं आपकॊ दिए देता हूँ, उसके अनुसार ब्रांडेड कंपनी का सामान ख़रीदना होगा। हाँ, एक बात बतलाना तो मैं भूल ही रहा था। हम बारात लेकर आपके यहाँ नहीं आ सकते। आपको यहाँ आना होगा और मण्डप का सारा ख़र्च भी आपको उठाना होगा।” 

बातें सुनते हुए जोशीजी के तन-बदन में आग-सी लगने लगी थी। शरीर में ख़ून खौलने लगा था। साँसें अनियंत्रित होने लगी थीं। माथे पर त्योरियाँ चढ़ आयीं थी। अन्दर क्रोध की ज्वाला विकराल रूप लेकर भड़कने लगी थी। लगभग गरजते हुए उन्होंने कहा, “भाईजी . . . शादी की बात को लेकर मुझे कुछ लोगों से मिलने का मौक़ा मिला है, लेकिन मैंने तुमसे बड़ा भिखारी नहीं देखा। तुम लड़के की शादी कर रहे हो कि उसकी बोली लगा रहे हो? बोलो . . . कितने में बेचोगे अपने लड़के को? मैं ख़रीददार हूँ। एक लड़का, क्या पैदाकर लिया, कि तुम्हारे सामने हम लड़की वालों की कोई बिसात ही नहीं! तुम्हारे यहाँ विवाह योग्य पुत्री होती, तब तुम्हें पता चल जाता कि एक बाप को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं? मुझे तुम जैसे भिखमगों के यहाँ अपना रिश्ता नहीं जोड़ना है . . .” कहते हुए जोशीजी का पूरा शरीर काँपने सा लगा था। वे अपनी सीट पर से उठ खड़े हुए और बाहर निकल आए थे। 

बाहर आकर उन्होंने कब रिक्शा लिया, कब उसमें बैठ गए और कब अपने घर की ओर रवाना हो गए, उन्हें याद नहीं। क्रोध अब तक उन पर तारी था। 

बस की सीट पर बैठे वे अन्दर ही अन्दर लहुलुहान हो रहे थे। एक विचार तिरोहित होता, तो दूसरा सवार हो जाता। अब उन्हें अपने आप पर भी क्रोध आने लगा था। क्रोध इस बात पर आने लगा था कि वे एक ऐसे कार्यालय में सुपरवाइज़र हैं, जहाँ से अरबों-खरबों की योजनाएँ रोज़ बनती हैं, भ्रष्टाचार की गंगा जहाँ प्रतिदिन बहती है। बस चुल्लू भर पानी पीने के लिए हाथ बढ़ाने भर की देरी थी। फिर भला रोका भी किसने था? बैठे-बिठाए लाखॊं कमाए जा सकते थे। पर वे तो बने रहे सिद्धांतवादी। क्या मिला उन्हें सिद्धांतवादी बन कर? पास में फ़ोरव्हिलर क्या, टूटी-फ़ूटी बाइक भी नहीं है। बैंक बैलेंस तो है ही नहीं। और न ही रहने को आलीशान कोठी है। बस बाप-दादाओं के हाथ का बना मकान है, जिसमें वे अपने परिवार के साथ रह रहे हैं। अब पछताने से क्या फ़ायदा। सिद्धांत-विद्धांत को ताक में रखकर, लूट में शामिल हो जाता तो शायद ये दिन न देखने पड़ते। 

तरह-तरह के विचार आकर उन्हें उद्वेलित कर जाते। वे कुछ और सोच पाते, तभी उन्हें अपनी प्यारी बिटिया अनुराधा की याद हो आयी। कितनी सुशील, कितनी विनयशील और संस्कारों से ओतप्रोत है। देखने-दिखाने में किसी अप्सरा के कम नहीं लगती। पढ़ने-लिखने में एकदम होशियार। वर्तमान समय में वह उत्कृष्ट विद्यालय में व्याख्याता के पद पर काम भी कर रही है। बावजूद इसके उसने अपनी ओर से कभी कोई ऐसी डिमांड नहीं रखी, जिसे मैं पूरा न कर पाऊँ। पता नहीं बिचारी के भाग्य में क्या लिखा-बदा है? सारे गुणों की खान होने के बावजूद भी उसकी शादी अब तक जुड़ नहीं पाई है।

उन्हें याद आया। पहली बार एक रिश्ता आया था। लड़का पढ़ा-लिखा किसी सर्विस में था। देखते ही हम सबने उसे पसंद भी कर लिया था। लेकिन उसकी शर्त थी। उसे एक ऐसी लड़की चाहिए जिसने संगीत में एम.ए. किया हो। अब बताइए, आप अपनी बच्चियों को आख़िर कितनी चीज़ों में पारंगत करवा सकते हैं? बात आयी गई हो गई।

एक रिश्ता और आया था। लड़का देखने में मजनूँ टाइप का दिखलाई पड़ता था। साथ में उसकी माँ भी थी। उसने जो मेकअप किया था, वह इतना भड़कीला और फूहड़ क़िस्म का था कि देखने वाला ख़ुद ही अपनी गर्दन नीची कर लेगा, वह अपने आपको अति आधुनिक क़िस्म और सोच का बतला रही थी। लड़के की माँ का कहना था कि लड़की को लड़के के साथ डेटिंग पर जाना होगा। साथ में रहेंगे-घूमेंगे-फिरेंगे, एक दूसरे के विचारों में समानताएँ खोजेंगे, उसके बाद हम तय करेंगे कि शादी की जाए अथवा नहीं। उसकी यह माँग हम किसी को भी मंज़ूर नहीं थी। आनन-फ़ानन में एक बहाना गढ़ा गया और हमने उसे मना कर दिया। 

उनकी पत्नी सुलभा का मत था कि लड़के की जानकारी मिलने के तुरन्त बाद हमको उसके घर जाकर जाँच-पड़ताल करनी चाहिए। यदि सब ठीक-ठाक रहा तो बात को आगे बढ़ाना चाहिए। इसी बात को मद्देनज़र रखते हुए वे चन्द्रपुर आए थे। वरवरराव भी अपनी जगह एकदम ठीक थे। उन्हें जैसे ही पता चला, उन्होंने हमें तुरन्त आकर बतलाया भी। यदि उस समय लड़के की माँ के साथ ही उसके पिता भी मिल गए होते, तो मामला समझ में तुरन्त ही आ जाता। वह हर मामले में मुझसे ज़्यादा होशियार है। बाल की खाल निकालना उसे आता है। पेट की बात उगलवाने में वह सिद्धहस्त है। अब जो होना था, वह हो गया। इसमें किसी का दोष नहीं है। वे अभी भी अपने अतीत की कन्दराओं में भटक रहे थे। उन्हें पता ही नहीं चल पाया कि बस शहर में प्रवेश करते हुए बस-स्थानक पर आकर खड़ी हो गयी है। वे और न जाने कितनी देर बैठे रहते, यदि बस कण्डक्टर उनसे उतरने को न कहता। 

बस से उतरकर उन्होंने रिक्शा लिया और अपने घर की ओर रवाना हो गए। मन पर अब भी भारी चट्टानों का बोझ लदा हुआ था और सिर भिन्ना रहा था। 

तरह-तरह के विचार अब भी मन में उमड़-घुमड़ रहे थे। घर की देहलीज़ पर रिक्शा कब आकर रुक गया था, उन्हें पता ही नहीं चल पाया। 

दरवाज़ा बंद था और घर के अन्दर से ठहाकों के मिश्रित स्वर बाहर आ रहे थे। वे ठिठककर खड़े हो गए थे। उन स्वरों में उनकी पत्नी सुलभा का भी स्वर था। वे उसकी हँसी को, एक लम्बे अरसे के बाद सुन पा रहे थे। ‘निश्चित ही कोई अनोखी बात होगी, तभी तो इतने सारे स्वर एक साथ सुनाई दे रहे हैं।’ 

अधीर होकर उन्होंने दरवाज़े पर दस्तक दी। दरवाज़ा खोलने वाला और कोई नहीं, बल्कि उनकी पत्नी ही थी। उन्हें आया देख उसने बड़े ही मनोहारी ढंग से हँसते हुए कहा, “आओ . . . जोशीजी आओ।”

जोशीजी समझ नहीं पा रहे थे कि आज उसने पहली बार इस तरह से उन्हें सम्बोधित किया है, वरना वह तो एजी, ओजी आदि कहा करती थी। निश्चित ही कुछ बड़ी अनहोनी हुई है, तभी तो यह बदलाव देखने को मिल रहा है। माजरा क्या है, यह अब तक समझ में नहीं आया था। जैसे ही उन्होंने अपने क़दम आगे बढ़ाए ही थे कि सुलभा ने इनके मुँह में बर्फ़ी का टुकड़ा डालते हुए कहा, “बधाई हो जोशीजी . . . बधाई”
वे कुछ बोल पाते इसके पूर्व, एक अजनबी युवक और अनुराधा ने आगे बढ़कर उनके चरण-स्पर्श किए। जोशीजी ने सहजरूप से आशीर्वाद देने के लिए अपने दोनों हाथ आगे बढ़ा दिए थे। मन में अब तक खलबली मची हुई थी वे जानना चाहते थे कि ये सब क्या और क्यों हो रहा है?

अपने पिता से आशीष लेने के पश्चात अनुराधा ने लगभग सकुचाते हुए धीरे से कहा, “बाबा, मैंने अपने सहकर्मी राजेश के साथ गंधर्व विवाह करने का फ़ैसला कर लिया है और बस आपकी सहमति हमें चाहिए।”

अंधा क्या चाहे, दो आँख! जोशीजी को और चाहिए भी क्या था? जिस काम के लिए वे यहाँ-वहाँ भटकते रहे थे, उनकी बेटी ने उनका सारा बोझ एकदम हल्का कर दिया था। दोनों को गले लगाते हुए उन्हें महसूस हो रहा था कि अन्दर ख़ुशियों के अनेक झरने फूटकर बह निकले हैं और वे उसमें सराबोर हो रहे हैं। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
ललित कला
कविता
सामाजिक आलेख
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
सांस्कृतिक कथा
ऐतिहासिक
पुस्तक समीक्षा
स्मृति लेख
लघुकथा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में