बिना तुम्हारे छाया सूनापन

15-08-2021

बिना तुम्हारे छाया सूनापन

गोवर्धन यादव (अंक: 187, अगस्त द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)


 

 

 

1.

एक अरसा बीत गया    
तुम दिखाई नहीं दीं गौरैया?
और न ही वह झुंड जो 
हरदम आता था साथ तुम्हारे–
दाना-चुग्गा चुनने
कहाँ हो, कहाँ हो गौरैया तुम?
न जाने कहाँ बिला गईं?
तुम्हें एक नज़र देखने को
कब से तरस रही हैं मेरी आँखें

 

 

 

 

 

2.

अपनी संग-सहेलियों के संग
आँगन में फ़ुदक-फ़ुदक कर चलना
चाँवल की कनकी को चुनना
चोंच भर पानी पीना
फिर, फ़ुर्र से उड़ जाना
कितना सुहाना लगता था
न तो तुम आईं
और न ही तुम्हारी कोई सहेली
बिन तुम्हारे
सूना-सूना सा लगता है आँगन

 

 

 

 

 

 

 

 

3.

कहाँ हो, कहाँ हो तुम गौरैया?
तुम्हें धरती ने खा लिया, या        
आसमान ने लील लिया?
एक अरसा बीत गया तुम्हें देखे
न जाने क्यों
उलटे–सीधे . . . सवाल        
उठने लगते हैं मन में

 

 

 

 

 

 

4.

तुम तो तुम            
वह लंगड़ा कौवा भी अब दिखाई नहीं देता
जो तुम्हें डराता नहीं था, बल्कि 
चुपचाप बैठा, 
रोटी के टुकड़े बीन-बीन खाता था.
अब सुनाई नहीं देती–        
तुम्हारी आवाज़ और
न ही दिखाई देता है वह लंगड़ा कौवा ही
फ़र्श पर बिखरा चुग्गा
मिट्टी के मर्तबान में भरा पानी
जैसा का वैसा पड़ा रहता है महिनों
शायद, तुम लोगों के इन्तज़ार में
कब लौटोगे तुम सब लोग?

 

 

 

 

 

5.

तुम्हारे बारे में
सोचते हुए कुछ . . .
काँपता है दिल
बोलते हुए लड़खड़ाती है जीभ
कि कहीं तुम्हारा वजूद
सूरज की लपलपाती प्रचण्ड किरणों ने–
तो नहीं लील लिया?
शायद ऐसा ही कुछ हुआ होगा
तभी तो तुम दिखाई नहीं देतीं
दूर-दूर तक
और न ही सुनाई देती है 
तुम्हारी चूँ-चाँ की आवाज़

 

 

 

 

 

6.

कितनी निष्ठुरता से आदमी 
काटता है पेड़
पल भर को भी नहीं सोचता, कि
नहीं होंगे जब पेड़, तो
हरियाली भी नहीं बचेगी
हरियाली नहीं होगी तो
बंजर हो जाएगी धरती
बेघर हो जाएँगे पंछी
सूख जाएँगी नदियाँ
अगर सूख गईं नदियाँ
तो तुम कहीं के भी नहीं रहोगे
और न ही तुम्हारी पीढ़ियाँ?

 

 

 

 

 

 

 

 

7.

एक चोंच दाना–
एक चोंच पानी और
घर का एक छोटा सा कोना–
यही तो माँगती है गौरैया तुमसे, 
इसके अलावा वह और कुछ नहीं माँगती 
न ही उसकी और कोई लालसा है
क्या तुम उसे दे पाओगे?
चुटकी भर दाना,
दो बूँद पानी और
घर का एक उपेक्षित कोना?

 

 

 

 

 

 

8.

मुझे अब भी याद है बचपन के सुहाने दिन
वो खपरैल वाला, मिट्टी का बना मकान
जिसमें हम चार भाई,
रहते थे माँ-बाप के सहित
और इसी कच्चे मकान के छप्पर के एक कोने में
तुमने तिनका-तिनका जोड़कर बनाया था घोंसला
और दिया था चार बच्चों को जनम
इस तरह, इस कच्चे मकान में 
रहते थे हम एक दर्जन प्राणी,
हँसते-खेलते-कूदते–
खिलखिलाते-आपस में बतियाते
तुम न जाने कहाँ से 
बीन लाती थीं खाने की सामग्री
और खिलाती थीं अपनों बच्चों को भरपेट।
समय बदलते ही सब कुछ बदल गया
अब कच्चे मकान की जगह
सीमेन्ट-कांक़ीट का 
तीन मंज़िला मकान हो गया है खड़ा
रहते हैं उसमें अब भी 
चार भाई पहले की तरह
अलग-अलग, अनजान, 
अजनबी लोगों की तरह–
किसी अजनबी पड़ोसियों की तरह
नहीं होती अब उनके बीच 
किसी तरह की कोई बात
सुरक्षित नहीं रहा अब 
तुम्हारा घोंसला भी तो
सोचता हूँ, सच भी है कि
मकान भले ही कच्चा था 
लेकिन मज़बूत थी रिश्तों की डोर
शायद, सीमेन्ट-कांक्रीट के जंगल के ऊगते ही
सभी के दिल भी पत्थर के हो गए हैं।

 

 

 

 

 

9.

बुरा लगता है मुझे-
अख़बार में पढ़कर और
समाचार सुनकर
कि कुछ तथाकथित समाज-सेवी
दे रहे होते हैं सीख,
चिड़ियों के लिए पानी की व्यवस्था की जाए
और फिर निकल पड़ते हैं बाँटने मिट्टी के पात्र
ख़ूब फोटो छपती है इनकी
और अख़बार भी उनकी प्रसंशा में गीत गाता है
लोग पढ़ते हैं समाचार और भूल जाते हैं।
काश! हम कर पाते इनके लिए कोई स्थायी व्यवस्था
तो कोई पशु-पक्षी —
नहीं गँवा पाता अपनी जान!

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