अपने-अपने घोंसले-अपना-अपना आसमान

01-10-2024

अपने-अपने घोंसले-अपना-अपना आसमान

गोवर्धन यादव (अंक: 262, अक्टूबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

“बाबूजीऽऽऽऽऽ . . .”                                     

उसकी आवाज़ में तल्ख़ी थी। वह चीखकर बोला था। बोलते समय उसके ओंठ काँपे थे। चेहरे पर तनाव की परछाइयाँ साफ़ देखी जा सकती थीं। वह तमतमाया हुआ था। उसकी तर्जनी बाबूजी के तरफ़ तनी हुई थी।

“बाबूजी . . . बस! बस बहुत हो चुका। जितना कहना था . . . कह चुके। हमें अब समझाने की ज़रूरत नहीं। बहुत समझा चुके आप। अब हम बच्चे नहीं रहे . . . हमें अपनी ज़िन्दगी अपने हिसाब से जीने दें . . .”

रामप्रसाद का चेहरा फक पड़ गया था। आवाज़ गले में फँसकर रह गयी थी। मुँह खुला रह गया था। वे अवाक्‌ थे। अजय के चेहरे पर क्रोध की परतों को कुरेदकर देखने लगे थे। मन में विचारों का तूफ़ान उठ खड़ा हुआ था। अंदर सब क्षत-विक्षत था। नज़ारा देखते हुए वे सोचने लगे थे।

अजय में इतनी हिम्मत कहाँ से आ गयी कि वह अपने पिता से ज़बान लड़ाने लगा। भूल गया वह किससे बात कर रहा है। अपने पिता से . . . वह भी इस लहजे में . . . वे अपने आपको टटोलने लगे थे। बोले गए शब्दों को मन ही मन दोहराने लगे थे। याद नहीं पड़ता कि उन्होंने अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया था। फिर एक बाप अपने बेटे से दोयम-दर्जे की बात क्यों कर कह सकेगा। वह तो वही बोलता है, जिसमें उसकी भलाई छुपी हुई होती है . . .। वह उसके लिए कल्याणकारी हो . . . उसका हितवर्धन करती हो।

उनकी अब तक की ज़िन्दगी पढ़ने-पढ़ाने में ही बीती है। कितने ही विद्यार्थियों को वे अब तक पढ़ा चुके हैं . . . कितने ही विद्यार्थी उनके कुशल मार्गदर्शन में पीएच.डी. की उपाधियाँ हासिल कर चुके हैं। अपनी उच्च परम्परा, कर्तव्यनिष्ठा एवं आदर्श के लिए वे सदैव याद किए जाते हैं। आज भी उन्हें भिन्न-भिन्न विषयों पर आख्यान देने के लिए आदर के साथ बुलाया जाता है।

निश्चित ही अजय के कोमल मन में किसी ने विष-वृक्ष बो दिए हैं। कौन है वह? क्यों वह उनकी अमन-चैन की ज़िन्दगी में बवण्डर उठाना चाहता है? क्यों लोग चाहते है कि उनके नीड़ का तिनका-तिनका बिखर जाए? तरह-तरह के प्रश्न उन्हें उद्वेलित-व्यथित कर जाते।

अजय के चेहरे से चिपकी नज़रें हटाते हुए उन्होंने कामिनी की ओर देखा। वह एक ओर खड़ी नज़ारा देख रही थी। उसकी आँखों में एक विशेष चमक थी और होंठों पर कुटिल मुस्कान। वे समझ गए। समझने में तनिक भी देर नहीं लगी। झगड़े की जड़ में शायद इसी का हाथ हो?

सरस्वती के पुत्र हैं वे, जबकि कामिनी लक्ष्मी की दासी। एक करोड़पति बाप की इकलौती संतान। जब सरस्वती और लक्ष्मी में नहीं निभी तो उनके अनुयायी के बीच तालमेल कैसे बैठ सकता है? लक्ष्मी-पुत्रों ने सदा से ही सरस्वती-पुत्रों का मख़ौल ही उड़ाया है। मन के कोने में संदेह के बीज पनपने लगे थे।

उन्होंने कातर नज़रों से कांता की ओर देखा। वे भी अजय के व्यवहार से नाख़ुश थी। वह भी स्तब्ध खड़ी थीं। ज़ुबान होते हुए भी गूँगी। ज़िन्दा होते हुए भी जड़वत, पाषाण-खण्ड की तरह।

कांता का मन घड़ी के पेण्डुलम की तरह दोलायमान हो रहा था। कभी इधर-कभी उधर। वह सोच रही थी।, किसका पक्ष लूँ, किसका नहीं। अजय का पक्ष लेती है तो पतिव्रत-धर्म आहत होता है। पति के नज़रों में गिर भी सकती है। पति का पक्ष लेती है, तो ममता घायल होती है। दो भागों में बँटी औरत कितनी विवश, कितनी लाचार, कितनी अवश होती है। औरत तो सदा से ही खण्ड-खण्ड होती आयी है।

खण्ड-खण्ड होते हुए भी उसमें दया-ममता-करुणा के विविध स्त्रोत बने ही रहते हैं। सदियों से यह क्रम औरत जात का पीछ करता आया है। उन्हें सब कुछ लुटाना पड़ता है। यहाँ तक नेह भी, प्यार भी और देह भी। वे तरह-तरह से लूटी जाती रही हैं। लुटने का ढंग भिन्न-भिन्न हो सकता है।

फिर उसे कितने ही संबंधों के बीच से होकर गुज़रना पड़ता है। कभी वह दुर्गा बना दी जाती है, तो कभी काली, कभी कुछ और। देवी बनकर आशीर्वाद भी तो लुटाने पड़ते हैं उसे। जब वह दाँव पर चढ़ा दी जाती है तो विवस्त्र भी किया जाता है उसे। कभी वह वेश्या बनाकर कोठे पर बिठा दी जाती है। देह लुटाने के बदले में उसे मिलती है चाँदी की खनक, जो बुढ़ाती देह के साथ ही अपनी चमक खोने लगती है। किसका पक्ष ले कांता, किसका न ले? मन में अब भी चक्रवात सक्रिय था।

अजय के द्वारा कहे गए शब्दों की अनुगूँज अब भी इसके कानों में सुनाई पड़ रही थी। अजय की बातों से साफ़ झलक रहा था कि उसने अपना रास्ता चुन लिया है। अपना अलग घर बसा लेने का मानस बना लिया है।

माँ सब कुछ सह सकती है। दुनियाँ के सारे दुख-दर्द उठा सकती है। पर पुत्र वियोग की बात वह सहन नहीं कर सकती। उसका मन राई के दानों की तरह बिखर-बिखर गया था।

पुत्र की कामना ने कितना भटकाया था उसे। कितनी ही मनौतियाँ माँगने, कितने ही देवालयों की चौखट पर माता नवाने, पीर-पैगंबरों की मज़ारों पर सज्दा करने के बाद उसने अजय को पाया था। अजय के लिए उसने अपने दिन का चैन और रातों की नींद सभी कुछ लुटा दिया था।

अपने जीवन का अर्क निचोड़कर पिलाया था उसने। उसे संस्कार दिए। समाज में सम्मानपूर्वक जीने का हक़ दिया। पिता ने भी क्या कुछ नहीं दिया। पिता ने उसे शरीर, ज़मीन, आश्रय मिला। उसने उसे आसमां में उड़ने के लिए दीक्षित किया। आसमान से परिचय करवाया। आज वही अजय अपने पिता को धमकाने पर उतर आया। अख़िर क्यों . . . क्यों . . .?

कांता की नज़रें कामिनी के चेहरे पर जा टिकीं। रूप में वह खिले हुए कमल की तरह थी, तो रंग में धुली हुई चाँदनी की तरह। कामिनी की आँखों में कौंधती बिजली की चमक और होंठों पर कुटिल मुस्कान देखकर वह अन्दर तक काँप-सी गई थी। एक अज्ञात भय मन की गहराइयों तक उतर आया था। कितना भला समझा था उसने कामिनी को। लेकिन वह तो गुड़ भरी हँसिया निकली। उसके मन में कुछ न होता तो वह अजय को अपने दुष्कृत्य के लिए टोकती। उसे मना करती। उसके विरोध में खड़ी हो जाती। संदेह कुछ-कुछ यक़ीन में बदलता जा रहा था।

कामिनी नहीं चाहती थी कि उसका पति अपनी माँ का पल्लू पकड़े-पकड़े उसके पीछे डोलता फिरे। वह यह भी नहीं चाहती थी कि वह अपने पिता की डुगडुगी की आवाज़ पर पालतू रीछ की तरह नाचता रहे। वह तो कुछ और ही चाहती थी। वह चाहती थी कि अजय के संग तितली बनकर, हवा की पीठ पर सवार होकर इठलाती-बलखाती डोलती फिरे। फिर महलों की रहने वाली शहज़ादी का दम घुटता था कच्चे मकान में। वह चाहती थी कि एक क़ाबिल अफ़सर अपने स्टेटस के मुताबिक़ रहे। अजय एक हीरा है और वह चाहती थी कि उसे सोने के वृत्त में जड़ा जाना चाहिए।

इंसाफ़ के तराज़ू के पलड़े ऊपर-नीचे होते हुए आख़िर थिर हो गए। निर्णय पति के पक्ष में गया। कांता का मौन मुखर हो उठा। जड़-देह चैतन्य होने लगी। होंठों पर शब्द फड़फड़ाने लगे। आँखों में क्रोध उतर आया। अजय को उसकी औक़ात बतलाना भी ज़रूरी था। उसने अजय के गाल पर तड़ाक से एक चाँटा जड़ दिया। चाँटा जड़ने के साथ ही वह केवल इतना भर कह पायी, “अजय . . . अब चुप भी कर। क्या अधिकार है तुझे कि तू अपने देवतातुल्य पिता पर उँगली उठा सके। जिस देवता ने तुझे शरीर दिया . . . आत्मा दी . . . वाणी दी . . . तमीज़ सिखाई . . . समाज में सम्मानपूर्वक जीने का हक़ दिया। तू आज उन्हीं की बेइज़्ज़ती करने पर उतर आया।” बस . . . बस इतना ही वे कह पायी थी और उसे गले से लगाते हुए फफककर रो पड़ी थीं।

अजय के अदंर उमड़-घुमड़ रहे विद्रोह का चक्रवात धीमा पड़ने लगा था। मन पर जमीं अहं की परतें और घमण्ड के हिमकुण्ड पिघलकर आँखों से बह निकले।

कामिनी को समझते देर न लगी। उसे अपना मायाजाल ध्वस्त होता नज़र आने लगा। वह सोचने लगी। ‘माँजी ने क्रोध जता दिया और अपनी ममता का सागर भी उलीच डाला।’ सारा मामला लगभग शांत होता दिखा। अपनी विफलता देखकर वह क्रोध में भरने लगी थी। हारकर भी हार न मानते हुए उसने अपने तरकश में बचा आख़िरी तीर, लक्ष्य साधकर चला दिया।

“अजय . . . ख़ूब अपमान करा चुके तुम अपना और कितना अपमानित होते रहोगे? क्यों पड़े हो मेंढक की तरह इस कुएँ में, जिसकी अपनी छोटी सी सीमा है? तुम्हें तैरने के लिए तो एक समुद्र चाहिए। क्यों दुबके पड़े हो अपनी माँ के पल्लू से, जबकि तुम्हें उड़ने के लिए एक आसमान चाहिए। क्यों घुट-घुटकर जी रहे हो, जबकि तुम्हें धरती का सा विस्तार चाहिए। ये तुम्हें कुछ नहीं दे सकते। ये दे भी क्या सकते हैं तुम्हें? इनके पास देने को कुछ बचा भी क्या है? इन्होंने तुम्हें आदर्शों का मोमजामा भर पहना दिया है। जबकि आज की दुनियाँ में इसकी क़तई ज़रूरत नहीं है। खोखले हैं वे सारे शब्द। वे कभी के अपनी अर्थवत्ता, अपनी गरिमा, अपनी चमक, सभी कुछ खो चुके हैं। ठीक है . . . इनके सहारे तुम उस धरातल पर खड़े तो हो सकते हो, लेकिन आकाश की ऊँचाइयों को कभी नहीं छू सकते। सुनने मात्र में अच्छे लगते हैं ये शब्द। अब भी समय है अजय . . . जागो! तुम इस भुरभुरी ज़मीन पर कैसे खड़े रह सकते हो? तुम अब भी सूखे हुए वृक्ष की कोटर में रहना चाहते हो तो रहो। मैं एक पल भी यहाँ ठहरना नहीं चाहती। दम घुटता है मेरा यहाँ। तुम्हें अपमानित होने में मज़ा आ रहा हो तो शौक़ से रहो। मैं तुम्हें अपमानित होता हुआ नहीं देख सकती . . . हरगिज़ नहीं। मैं आज और अभी, इस घर को छोड़कर जा रही हूँ। तुम चाहो तो मेरे साथ चल सकती हो। बाद में आना चाहो तो, आ सकते हो। तुम्हें मेरी नज़रों की कालीन हमेशा बिछी मिलेगी।”

तीर लक्ष्य साधकर संधान किया गया था। तीर निशाने पर बैठा था। वह जानती थी कि तीर की तासीर। वह तीर बेहोश करेगा, मगर होश भी बना रहेगा। वह देखेगा भी तो उसे उसका अक्स नज़र आएगा। उसे दर्द भी होगा। आह भी निकलगी . . . पर आह के साथ उसका अपना नाम भी होगा। जानती है वह। वह तीर उसने उसके रूप-यौवन और मद के सम्मिश्रण के घोल में बुझाकर तैयार किया था। एक ऐसे ही तीर का संधान अप्सरा मेनका ने किया था, जिसकी घातक मार का सामना ऋषि विश्वामित्र को भी करना पड़ा था। उसके होंठों पर एक कुटिल मुस्कान तैरने लगी थी।

“क्या कह रही हो कामिनी तुम? क्यों हमारे विरोध में अजय को भड़का रही हो? क्या हमने तुम्हें पराया समझा? तुम्हें अपनी बहू नहीं, बेटी माना है हमने। क्या माँ-बाप को इतना भी अधिकार नहीं है कि वे अपने बेटे को डाँट भी सकें? तुम एक माँ-बाप होने का हक़ हमसे छीनना चाहती हो?” कांता के स्वर में हताशा के भाव सन्निहित थे। बोलते समय उसके होंठ भी काँपे थे।

“मुझे इस विषय में कुछ भी नहीं कहना है और न ही मैं कुछ कहना चाहूँगी,” पैर पटकते हुए वह अपने कमरे में जा समायी और अपना सूटकेस तैयार करने लगी थी।

एक विभाजन-रेखा स्पष्ट रूप से खींची जा चुकी थी। कामिनी जानती थी कि अजय उसके प्रेम-पाश में इस क़द्र जकड़ा हुआ है कि देर-सबेर ही सही, उसके पास चला आएगा। अपने हृदय-कमल की पंखुड़ियों के भीतर, उसने अजय रूपी भौंरे को क़ैद करके जो रख लिया था।

कामिनी जा चुकी थी। उसे जाते हुए सभी देख रहे थे। रामप्रसाद एवं कांता अपने नीड़ को उजड़ते हुए देख रहे थे। वे जानते थे कि कामिनी रोके से रुकने वाली नहीं है। कामिनी के जाते ही एक बड़ा सा शून्य सभी के मन में उतर आया था।

अजय का दिन का चैन व रातों की नींद छिन गई थी। भूख-प्यास से जैसे उसको कोई नाता ही नहीं रह गया था। वह खोया-खोया सा रहता। बाबूजी समझाते। माँ समझाती। कामिनी को वापस ले आने की कहते तो वह चुप्पी लगा जाता और कमरे में अपने आपको बंद कर लेता।

माँ अपने पुत्र की हालत देखकर परेशान हो जाती। भला वह अपने पुत्र को दुखी देख भी कैसे सकती थी। जानती थी कि कामिनी ज़िदी है। फिर एक करोड़पति बाप की इकलौती संतान थी। उसने एक बार ज़िद पकड़ ली तो पूरा कराये बग़ैर वह कब मानती थी। उसके पिता उसकी ज़िद पूरी किये देते थे। माँ-बाप को हक़ है कि वह अपनी संतान की ज़िद पूरी करें, लेकिन उन्हें यह बात ध्यान में अवश्य रखनी चाहिए कि ज़िद कहीं आदतों में शुमार न हो जाएँ। नदी को अपनी निर्बाध गति से अवश्य बहना चाहिए। पर यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि तटबंध मज़बूत हो, अन्यथा वह अपनी उद्दण्डता के चलते बस्तियाँ उजाड़ देती हैं।

वे नारी स्वतंत्र्यता की प्रबल पक्षधर रही है। स्वतंत्रता कहीं स्वछन्दता में न ढल जाए, इस बात का ध्यान भी माता-पिता को रखना चाहिए। उन्हें समझाना चाहिए कि देह के भीतर और देह के बाहर भी बहुत कुछ होता है।

अजय को उन्होंने संस्कार दिये थे। पता नहीं . . . कहाँ कोई कमी रह गयी कि बीज ढंग से अंकुरित नहीं हो पाए। रह-रहकर एक बवण्डर सा उठता। रह-रहकर बीती बातें याद आतीं। शादी से पूर्व उन्होंने कामिनी को लेकर जो अंदाज़ा लगाया था, वह शत-प्रतिशत सच निकला। ‘सम्बन्ध हमेशा बराबरी वालों से किया जाना चाहिए’ का सिद्धांत जानते-बूझते हुए, और फिर अजय की ज़िद के चलते उन्हें यह रिश्ता स्वीकार करना पड़ा था।

शाम को छत पर बैठी कांता सूरज को अस्ताचल में जाता देखती रही थी। ललछौंही किरणॊं से पीपल के पत्ते सँवलाने लगे थे। पक्षियों के दल लौटने लगे थे। वे अपने मुँह में दाना-चुग्गा भर लाई थे, अपने शिशुओं के लिए। दाना-चुगा खिला देने के बाद वे आपस में बतियाने लगे थे। दूर-दूर तक उड़ कर जाते, फिर वापस लौट आते थे। शायद वे अपना कौशल दिखा रहे थे। सूरज अपनी किरणॊं के जाल को समेटकर पहाड़ के उस पार उतर जाना चाहता था एक सुरमयी अँधियारा सा छाने लगा था। सारे पक्षी उसकी बिदाई में सांध्य गीत गाने लगे थे। बूढ़े पीपल के देह में झुरझुरी सी भर आयी थी। वह भी तालियाँ बजा-बजाकर पक्षियों का उत्साहवर्धन कर रहा था।

अपनी अंतिम किरण समेट लेने से पूर्व, सूरज इस बात को देखता चला था कि उसका अपना परिवार आनन्दमग्न होकर गीत गा रहा है। सभी ख़ुशी में झूम रहे हैं। वह चाहता था कि इसी तरह सब कुछ चलता रहना चाहिए। वह इस आशा के साथ दक्षिणायन के पथ पर बढ़ चला था कि जब वह नए रूप में पूरब से उगेगा तो उसे उसका समूचा परिवार, इसी तरह आनन्द में डूबा मिले। हँसता-गाता मिले और पूरे जोश-ओ-ख़रोश के साथ उसका स्वागत करे।

छत पर सुबह-शाम टहलना-बैठना अब कांता की दिनचर्या हो गयी थी। खगोलीय घटना को घटते देख उसे अपार ख़ुशी मिलती थी। पक्षियों की गतिविधियों को बारीक़ी से देखते रहने में उसे अपार प्रसन्न्ता होती थी। उसे यह जानकर बेहद ख़ुशी हुई थी कि भिन्न-भिन्न प्रजाति के मूक-पखेरू किस तरह आपस में हिलमिल कर रहते हैं। कैसे अपने परिवार को चलाते हैं, जहाँ लड़ाई-झगड़ा या फिर वाद-विवाद के लिए कोई जगह नहीं होती।

उसने देखा, पक्षियों के बच्चे जब अबोध होते हैं, अपने कोटर में ही रहते हैं। मादा, शिशु को चुगा-दाना देती रहती है। जब उनके पंख उगने शुरू होते हैं, तो वह उन्हें उड़ना भी सिखलाती है। कभी-कभी तो वह अपने शिशु को घोंसले के बाहर धकेल देती है ताकि वे जल्दी उड़ना सीख जाएँ।

बच्चे जब जवान होते हैं तो अपनी पसंद का जीवन-साथी चुनते हैं। जोड़ा बनाकर ही वे गर्भाधान की प्रक्रिया अपनाते हैं। मादा के गर्भवती होते ही, दोनों मिलकर नीड़ बनाने में व्यस्त हो जाते हैं, तिनका-तिनका जोड़कर घोंसला बनाया जाने लगता है।

नीड़ के बनते ही मादा अंडे देती है। उसे सेती है तब तक, जब तक शिशु बाहर नहीं आ जाता। अब नर पक्षी की ड्यूटी बनती है कि वह मादा की देखभाल करे और उसके उदर पोषण की भी व्यवस्था करे।

उसने एक बात शिद्दत के साथ नोट की थी कि घोंसला केवल एक बार ही बनता है। उसका उपयोग बाद में नहीं होता। जब शिशु जवान होकर घोंसला छोड़ चुका होता है, बेलगाम हवा उन घोंसलों को अपने थपेड़ों से तहस-नहस कर डालती है। अपने उजड़ते हुए घोंसलों को वे वैराग्यभाव से देखते जाते हैं। घोंसलॊं के प्रति उनका मोह तब तक बना रहता है, जब तक इनमें उनके बच्चे चहचहाते रहते हैं. . .। जिसे एक बार छोड़ दिया, उसके प्रति फिर मोह कैसा? शायद यह निष्काम-भाव-वैराग्य का भाव, उन्होंने प्रकृति के सानिध्य में रहकर ही सीखा होगा।

कांता को सूत्र मिल गया था। सूत्र इस प्रकृति की मूक भगवदगीता थी। वहाँ न तो अर्जुन था। न कौरवों की फ़ौज। न वहाँ कोई मान-समान की भूख थी, न ही अपमानित होने पर प्रतिशोध के लिए धधकती ज्वाला थी, न राज था और न ही ही पाट, वहाँ श्रीकृष्ण भी नहीं थे। होना भी नहीं चाहिए थे। वे वहाँ हो भी कैसे सकते थे?  बिना सुने वे गीता का भाष्य सुन चुकी थीं। बिना देखे वे कृष्ण की उपस्थिति का अहसास भी कर चुकी थीं।

कांता ने रामप्रसादजी को छत पर बुलाया। कुर्सी पर बिठाते हुए प्रकृति की उत्तम व्याख्या कह सुनायी। नीड़ बनाते जोड़ों व नीड़ गिराती हवा को प्रत्यक्ष दिखलाने लगी थी।

रामप्रसादजी ने कांता की आँखों में आँखें डालकर भीतर तक झाँका। एक नीला, अनंत सागर, अन्दर अपने पूरे विस्तार के साथ फैला हुआ था।

कुछ हद तक असहमत होते हुए भी उन्होंने अपनी सहमति प्रदान कर दी थी। वे इस बात पर सहमत हो गए थे कि अजय को भी अपना नीड़ बनाने की स्वतंत्रता है। उन्होंने निश्चय कर लिया था कि सुबह होते ही वे अजय को बंधनमुक्त कर देंगे ताकि वह नीलगगन में अपनी उड़ान भर सके।

बादलों को बलात हटाते हुए एक नया सूरज आसमान के पटल पर मुस्कुराने लगा था। 

2 टिप्पणियाँ

  • 14 Oct, 2024 10:09 PM

    सादर नमस्कार।। कहानी प्रकाशन के लिए आत्मीय धन्यवाद।

  • 24 Sep, 2024 08:57 PM

    Bahut hi saral or sundar lekhan . Pariwar sambandhit chhoti moti nok jhonk ko bahut saralta se vyakhya ki gayi hai . Mujhe yah laghu katha bahut pasand aayi. Well done

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