जाड़ा

आशुतोष शर्मा (अंक: 196, जनवरी प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

जैसे-जैसे शाम बढ़े, चिन्ता बढ़ती जाए
रात गुज़ारे किस तरह, अलाव दिया जलाए।
 
जाड़े से बचने के लिए, ओढ़ी जो रजाई
जगह-जगह से झाँके जाड़ा खिल्ली खूब उड़ाए।
 
घुटने सटे पेट से, और काँपे सारा गात
बेरहम जाड़ा सारी रात यूँ ही सताए।
 
सूरज जागा तो सच में, जान में जान आई
तन के अदर धीरे-धीरे धूप रमती जाए।
 
नुक्कड़ के खोखे से ली, एक कप गर्म चाय
ब्रेड डुबोकर खा ली, भूख से यही बचाए।
 
चलता रहा शरीर, जब तक सूरज जगा रहा,
लेकर दिहाड़ी चला तन, मन ठगा सा रह जाए।

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