कुछ ईंट और मिट्टी से, बन तो जाता है चूल्हा
पसीना मेहनत का लिपो, उम्र पाता है चूल्हा। 
 
यूँ कोई, कहीं आग, लगा सकता है लेकिन
लगाना आग क़रीने से, सीखाता है चूल्हा। 
 
कब आँच करनी तेज़, कब करनी है धीमी
पहचानना रुख़ हवा का, सिखाता है चूल्हा। 
 
घर-बार चलता जब-तक, जलता है चूल्हा
ख़ुद जलकर आग पेट की, बुझाता है चूल्हा। 
 
पौ फटते ही जिस घर में, जलता हो चूल्हा
है दाना उस घर में, यह बताता है चूल्हा। 
 
जिस दिन किसी घर में, जला न हो चूल्हा
मातम का सन्देश भी, सुनाता है चूल्हा। 
 
चूल्हे में मारे फूकनी, जब ज़ोर से गोरी
घूँघट में छिपे रूप को, दमकाता है चूल्हा। 

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