हँसी की क़ीमत

15-06-2025

हँसी की क़ीमत

विकास बिश्नोई (अंक: 279, जून द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

राजू वर्मा का जीवन उन हज़ारों करोड़ों भारतीयों की तरह था, जिनका नाम किसी सरकारी दस्तावेज़ में भले हो, पर जिनकी पहचान दुनिया में नहीं होती। वह एक निजी कंपनी में चपरासी था। काम छोटा था, पर मन में बड़ा आदरभाव लिए चलता। एक तरह से वह पूरे दफ़्तर की धुरी था—सबसे पहले पहुँचता, चाय बनाता, फ़ाइलें पहुँचाता, और बॉस की डाँट भी चुपचाप पी जाता। उसकी साइकिल की टोकरी में सब्ज़ियों से ज़्यादा उसकी आशाएँ लटकती थीं—बच्चों की फ़ीस, पत्नी की दवाई, और कभी-कभार एक मिठाई की पुड़िया। 

जीवन सरल था, पर सधा हुआ था—जैसे पुराने समय की दोपहरी, जिसमें धूप तो होती है, पर झुलसती नहीं। 

एक दिन, कंपनी से एक पत्र आया—सादी भाषा में एक भयानक निर्णय लिखा था—“हमें खेद है . . .” और बस। दफ़्तर बंद हो गया था। ज़िंदगी की गाड़ी, जो अब तक कच्ची सड़कों से चलती हुई आ रही थी, एक गड्ढे में गिर पड़ी। 

राजू कई दिनों तक अवाक्‌ रहा। नौकरी ढूँढ़ने निकला, पर कहीं से जवाब न मिला। कहीं कहा गया—“काम नहीं है,” कहीं—“आपकी उम्र अब ऐसी नहीं रही,” और कहीं तो यह भी—“अब तुम्हारे जैसे लोगों की ज़रूरत नहीं।”

छह महीने बीत गए। बच्चों की हँसी कम होने लगी, और घर में चुप्पियाँ बढ़ गईं। राशन के डिब्बे ख़ाली होते गए, और दिल में चिंता भरने लगी। मकान मालिक ने एक रात दरवाज़े पर दस्तक दी—वही दस्तक जो सिर्फ़ दरवाज़े पर नहीं, आत्मा पर होती है—“कल तक किराया नहीं दिया तो घर ख़ाली कर दो।”

उस रात सीमा ने रोटी परोसी और एक सवाल भी—“हम बच्चों को क्या जवाब देंगे, उन्हें कल कहाँ लेकर जाएँगे?” 

राजू ने जवाब नहीं दिया। उसने रोटी का एक टुकड़ा पानी में डुबोकर निगला—जैसे अपनी आत्मा को निगल रहा हो। 

सुबह होते-होते, वह कुछ और हो गया था। न चेहरा बदला था, न शरीर, पर आँखों में अब एक औरत की तरह लाचारी थी—वह लाचारी, जो आँसू नहीं बहाती, पर दिल में समंदर रखती है। 

उसने बाज़ार से एक जोकर की नक़ली नाक, सस्ता विग, और कुछ रंग ख़रीदे। पुराने कपड़ों को काट-पीटकर एक भड़कीला पहनावा बनाया। आईने में ख़ुद को देखा, तो ख़ुद पर हँस पड़ा। पर यह हँसी बाहर की थी, भीतर तो वह रो पड़ा। 

अब वह पुरानी दिल्ली की गलियों में जोकर बनकर घूमता था—हाथ में तख़्ती—“जोकर के साथ सेल्फी—सिर्फ़ 10 रुपये।” 

हँसी अब उसकी रोज़ी थी। हर मुस्कान के पीछे आँसुओं का समंदर छुपा था। 

लोग उसकी ओर देखकर हँसते, बच्चे ताली बजाते, कोई वीडियो बनाता। एक बच्चा बोला, “माँ! जोकर रो क्यों रहा है?” 

माँ ने कहा, “बेटा, ये बस एक्टिंग कर रहा है।” 

कौन समझे कि यह अभिनय नहीं था, यह एक पिता का आत्मबलिदान था। 

राजू घर आने से पहले अपना रंग मिटा देता। बच्चे पूछते, “पापा, आज भी मीटिंग थी क्या?” 

वह मुस्कुरा देता। सीमा कुछ नहीं कहती, पर उसकी आँखें बहुत कुछ पूछतीं। 

एक दिन गुड़िया ने अपनी नोटबुक में जोकर की तस्वीर बनाई थी—हाथ में दिल था और नीचे लिखा था—“मेरा हीरो।” 

राजू ने वह पन्ना देखा और फूट-फूटकर रो पड़ा। 

एक दिन उसका बेटा आरव बोला, “पापा, टीचर ने कहा कि जो सबसे ज़्यादा मुस्कुराता है, वो सबसे बहादुर होता है। मैं भी आपकी तरह बनना चाहता हूँ।” 

राजू ने कहा, “बनेगा बेटा, मुझसे बड़ा।” 

आरव ने धीरे से कहा, “पापा, कल मैंने आपको देखा था। आप जोकर थे . . . लेकिन मेरे लिए, आप सबसे महान इंसान हो। आपने अपनी इज़्ज़त, अपनी ख़ुशी, अपना स्वाभिमान सब कुछ हमारे लिए छोड़ दिया। लोग आपको 10 रुपये का जोकर समझते हैं, पर मेरे लिए आप सबसे क़ीमती इंसान हो।” 

उस दिन राजू पहली बार रंगों के बिना मुस्कुराया—एक सच्ची, आत्मा से निकली मुस्कान। उसने बेटे को गले से लगाया और कहा, “तेरा पिता जोकर नहीं, एक योद्धा है—जो बच्चों के भविष्य की लड़ाई मैदान में उतरकर लड़ता है।” 

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