डिमेंशिया का इलाज एआई से
स्नेहा सिंह
आप नियमित अख़बार पढ़ते हैं या टीवी पर समाचार देखते-सुनते हैं तो एक बात पर आप का ध्यान ज़रूर गया होगा। वर्त्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन पिछले कुछ समय से दुनिया के नेताओं के नाम लेने में गड़बड़ा जाते हैं। कभी चलते-चलते लड़खड़ा जाते हैं। उनके बात-व्यवहार में एक तरह से अव्यवस्था आ गई है।
बाइडेन को नज़दीक से पहचानने वाले लोगों का कहना है कि बाइडेन उम्र के कारण होने वाले डिमेंशिया का शिकार हो गए हैं। डिमेंशिया उम्र में आने वाली एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। जबकि अब दुनिया-भर के डॉक्टर इसे एक बीमारी बताते हैं। वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइज़ेशन के अनुसार साल 2023 में डिमेंशिया का शिकार बने लोगों की संख्या साढ़े पाँच, छह करोड़ की संख्या पार कर गई थी। हर साल लगभग एक करोड़ लोग इस संख्या में जुड़ रहे हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार ज़्यादातर कम आय वाले इलाक़े में रहने वाले लोगों में यह बीमारी ज़्यादा देखने को मिलती है।
आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान कहता है कि दुनिया में चार सौ तरह का डिमेंशिया है। जबकि हम अपने रोज़ के जीवन में तीन-चार तरह का डिमेंशिया दैखते हैं। इसमें पहला प्रकार है एक ख़ास प्रकार का भुलक्कड़पन। मनुष्य को पच्चीस-पचास साल पहले की तमाम घटनाएँ याद हों, पर दस मिनट पहले क्या खाया है, यह याद न हो। इसका उल्टा भी होता है। सुगम संगीत के विश्व विख्यात गायक को इस समय इस तरह का भुलक्कड़पन हुआ है। आयु के नवें दशक में जी रहे उन गायक को अपने गुरु तक का नाम बोलने में दिक़्क़त आती है। इस तरह के भुलक्कड़पन को डॉक्टर अल्जाईमर कहते हैं।
डिमेंशिया का एक दूसरा प्रकार पार्किंसन के नाम से जाना जाता है। शर्ट का बटन बंद करने में भी तकलीफ़ हो, लिखने की कोशिश में पेन अंगुलियों के बीच से खिसक जाए अथवा अक्षर टेढ़े-मेढ़े हो जाएँ तो ये लक्षण पार्किंसन के हैं।
डिमेंशिया का एक तीसरा प्रकार चलने में गड़बड़ी भी है। चलने में संतुलन न रहे, व्यक्ति की चाल शराबी जैसी अव्यवस्थित हो जाए, कभी भी गिर पड़े, यह भी डिमेंशिया का एक प्रकार माना जाता है।
आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान डिमेंशिया का जल्दी निदान किया जा सके, इस दिशा में शोध किया जा रहा था। निदान जल्दी या पहले (इन एडवांस) हो जाए और तुरंत इलाज शुरू हो जाए तो डिमेंशिया को रोका जा सके। व्यक्ति नॉर्मल जीवन जी सके। वैज्ञानिक आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस की सहायता से 10 लाख लोगों के दिमाग़ का स्कैन कर अध्ययन कर के इस दिशा में क्रांति लाने के लिए कमर कस रहे हैं। एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी और डंडी यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक पिछले 10 सालों से न्यूदील नामक एक प्रोज़ेक्ट पर काम कर रहे थे। पिछले 10 सालों में स्काटलैंड में जिन 10 लाख लोगों का सीटी (काॅम्युटेड टेमोग्राफी) स्कैन और एमआरआई (मैग्नेटिक रिज़ोनंस इमेजिंग) हुआ है, उसका पृथक्करण आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से करेंगे। यह पृथक्करण वैज्ञानिकों को यह जानकारी देगा कि किस व्यक्ति को कब किस प्रकार का डिमेंशिया होने की सम्भावना है।
किसी को अल्जाईमर होता है तो किसी को पार्किंसन होता है। ऐसा नहीं था कि पहले इस तकलीफ़ का कोई इलाज नहीं था। इलाज तो था पर उसकी एक मर्यादा थी। उदाहरणस्वरूप वैज्ञानिकों को यह पता चला था कि दिमाग़ में डोपामाइन नाम का जो रसायन उत्पन्न होता है, उसके संतुलन बिगड़ने पर पार्किंसन होता है।
कुछ रोगियों को औषधियुक्त डोपामाइन दे कर ठीक होने के भी मामले सामने आए हैं। परन्तु उसके बाद बाहर से दिए गए इस डोपामाइन का गंभीर बुरा असर दिखाई दिया था। कुछ रोगियों के किडनी पर प्रतिकूल असर हुआ था। अपवादस्वरूप केस में रोगी के हार्ट पर प्रतिकूल असर हुआ था। इसलिए इलाज के दूसरे विकल्प की खोज शुरू की।
इस समय वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइज़ेशन के वैज्ञानिकों का मानना है कि जिस तेज़ी से इस समय डिमेंशिया फैल रहा है, इसे देखते हुए साल 2050 तक ऐसे रोगियों की संख्या साढ़े 15 करोड़ हो जाएगी। इस समय इस दिशा में हो रहे शोध के पीछे साल में लगभग 800 अरब डॉलर ख़र्च हो रहा है। इसके बाद भी पूरी तरह संतोष हो, ऐसा कोई समाधान नहीं मिला है।
वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइज़ेशन मात्र डिमेंशिया पर ही ध्यान नहीं दे रहा है, अन्य रोगों के निवारण की दिशा में भी पूरा ध्यान दे रहा है। इस समय अलग-अलग कैंसर के रोगियों में ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी हो रही है। मक्खी-मच्छर से होने वाली बीमारियाँ, कोरोना जैसी अचानक आने वाली बीमारी, आदि अन्य अनेक मामलों के पीछे भी वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइज़ेशन को ध्यान देना पड़ता है। हर साल इस तरह के अलग-अलग रोगों के शोध के पीछे अरबों डॉलर्स ख़र्च होते हैं। इस बात को ध्यान में रख कर वैज्ञानिक रात-दिन शोध में लगे रहते हैं। जैसा शुरू में बताया गया है कि अकेले डिमेंशिया के चार सौ प्रकार होते हैं। दो चार प्रकार के इलाज में सफलता मिलने पर रुका नहीं जा सकता। रोग के मूल तक पहुँचने की कोशिश और उसका सही इलाज मिलने तक रुका नहीं जा सकता। अब इस दिशा में वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि इस मामले में आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस मदद करेगा, जिससे ज़बरदस्त सफलता मिलेगी।
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