बृज रस से विभोर कर देने वाले रसिका पागल
सुरेन्द्र अग्निहोत्रीकरुणामयी कृपामयी मेरी दयामयी राधे . . . अपनी अलमस्त गायकी से बृज रस से विभोर कर रसिक रस का अमृत पान कराने वाले हरिदासीय सम्प्रदाय के प्रख्यात भजन गायक बाबा रसिका पागल का 55 वर्ष की उम्र में बीते वर्ष वृंदावन के रामकृष्ण मिशन अस्पताल में गोलोकवास हो गया। बाबा रसिका पागल किडनी और शुगर की समस्या से जूझ रहे थे।
अर्थ को खोजते हुए शब्दों के गायक रसिका पागल जीवन को लेकर ही नहीं गायकी को लेकर भी दृष्टि बहुत निर्भ्रान्त है। उन्हें ज़रूरी और ग़ैरज़रूरी में फ़र्क़ करना और ग़ैरज़रूरी से परहेज़ करना आता था। सूरज-सी आस्था के दिनों में भी वे यह समझते और समझाते थे कि जैसी जीवन की वैसी ही बहुत सी दिक़्क़तें विशेषण के पीछे भागते रहने से पैदा होती हैं। महत्त्व विशेष्य का होता है, विशेषण का नहीं। पीला मकान में पीला गौण है। मुख्य तो मकान है। मकान न रहे, सिर्फ़ पीला ही रह जाय तो उसमें रहना भला कैसे होगा? श्रोता की दरकार नहीं है। दरअसल वह तो भगवान बाँके बिहारी के लिए स्वामी हरिदास जी के भजन गाते थे। अनगिनत रंगों से सजा यह जीवन किसी धनक सरीखा है! ऐसा धनक जो आसमानी अस्तित्व की गहराई में डूबते-उतरते शब्दों को अपने सुरों से सजा कर ब्रज रस माधुरी को दुनिया भर में फैलाया है। श्री रसिका पागल जी ने शास्त्रीय संगीत की विधिवत कोई शिक्षा नहीं ली थी अपितु ‘करत करत अभ्यास जड़मति होत सुजान’ की परंपरा के वाहक रसिका पागल ने देश दुनिया में सुर्ख़ियाँ बटोरीं। आँख की कोर को गीला कर, चिड़िया की मुस्कुराहट की तरह अस्तित्व को विराट तत्त्व में समाने से पहले अपनी गायकी की डोर चित्र विचित्र को सौंप दी थी।
‘रसिका पागल’ का क्या अर्थ है:
रसिका पागल शब्द का मतलब होता है जो बिहारी के प्रेम रस में डूबा रहे और उनके रस को पा ले, वह पागल है।
पागल शब्द का उल्टा होता है—‘लग पा’। मतलब पहले लग फिर पा।
आसान शब्दों में कहें तो पहले नौकरी पर लग फिर वेतन पा।
पहले पढ़ाई में लग, फिर रिज़ल्ट को पा।
इसी प्रकार पहले भक्ति में लग, फिर भगवान को पा।
यह पूरी दुनिया ही पागलख़ाना है, क्योंकि हर कोई कुछ न कुछ पाने में लगा हुआ है।
कोई धन पाने में लगा हुआ है, कोई इज़्ज़त पाने में लगा हुआ है तो कोई नाम यश पाने में लगा हुआ है। लेकिन ये सब झूठे पागल हैं।
सच्चा पागल वही है, जो बिहारी जी के प्रेम रस में डूबा है और उनके रस को पाने में लगा हुआ है।
पागल बाबा कहते हैं कि अगर पागलपन में ज़रा भी होशियारीपन आ गया, तो ठाकुर जी उससे दूर होते चले जाते हैं, क्योंकि भक्ति का रंग ऐसा ही है, जो भक्तों को बावरा और पागल बना देता है, पर शर्त यह है कि भक्ति सच्ची होनी चाहिए।
चतुर चालाकों से ठाकुर जी हमेशा दूर ही रहते हैं तथा भोले-भाले सीधे-साधे दीनों से प्रभु बहुत प्यार करते हैं।
बाबा रसिका पागल का जन्म एक जनवरी 1967 को वृंदावन में हुआ था। बचपन का नाम गुड्डा था। बचपन से गायन और ढोलक बजाने का शौक़ था। तीन भाई और दो बहनों में तीसरे नम्बर के बाबा अपनी ही मस्ती में रहते और रिक्शा चलाते थे। शाम को जब बाँके बिहारी मंदिर में शयन आरती होती तो वह बिहारीजी को अपने पदों को गा कर रिझाते (आराधना) करते थे। रिक्शा चलाने वाले बाबा रसिक दास भजनों को सुनाकर बिहारी की भक्ति में रसिका पागल बन गए। ब्रज के रसिक भक्त समाज के लिये बाबा रसिका पागल एक ऐसा नाम था जिसने भक्ति संगीत को नई दिशा दी। बाबा की अलमस्त गायकी का जादू भक्तों के दिलों पर ऐसा छाया सब दीवाने हो गये। गायकी बाबा के जीवन का हिस्सा बन चुकी थी। बाबा ने स्वामी हरिदास परम्परा में आचार्य संत गोविंद शरण शास्त्री से दीक्षा ग्रहण की। मंदिर में गायन करते समय ही म्यूज़िक कम्पनी टी-सीरीज़ के एक अधिकारी ने गायन सुना और अपनी कम्पनी के लिए गाने का अनुरोध किया। इसके बाद बाबा की गायकी दुनिया के सामने आयी। बाबा रसिका पागल ने भजन गायन की दुनिया में 1996 में क़दम रखा। उन्होंने सबसे पहली अलबम ‘कान्हा रे कान्हा’ है। इसके बाद बाबा ने हज़ारों भजन गाये। बाबा का भजन ‘कजरारे तेरे मोटे मोटे नैन नज़र तोहे लग न जाये’ बहुत प्रसिद्ध हुआ। बाबा रसिका पागल के भजनों के न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी लोग दीवाने हैं। बाबा के भक्त चमन प्रकाश नागर ने बताया कि बाबा जब भजन गायन करने जाते थे तो वह रचनाओं को पहले से तैयार नहीं करते थे। दिन में रिक्शा चलाने के बाद शाम को शयन आरती से पहले ठाकुर बाँके बिहारी मंदिर में लगी रेलिंग के सहारे खड़े होकर प्रतिदिन शाम को रसखान के सवैया सुनाते थे। जब कुछ श्रद्धालुओं ने बाबा को भजन के एवज़ में पैसे देना शुरू किया, तो उनका मंदिर में विरोध शुरू हो गया। बस यहीं से बाबा के जीवन में नया मोड़ आया और उन्होंने पैसे छूना बंद कर दिया और साधु बन गए। गुरु भक्ति में लीन रहने वाले रसिक दास जब अचानक भजन गाने लग जाते तो उनके गुरु ने उनका नाम रसिक दास से रसिका पागल कर दिया। गुरु ने बताया कि पागल का उल्टा अर्थ है ‘लग पा’। यानी भगवान की भक्ति में लग जाएगा तो भगवान को पालेगा। आओ सुनाऊँ तुम्हें ब्रज की कहानी / कजरारे-कजरारे . . . तेरे मोटे-मोटे नैन। यही वह भजन थे, जिन्हें सुनने के लिए कान्हा के भक्त दीवाने थे। इन भजनों के ज़रिए ठाकुर बाँके बिहारी की महिमा गाने वाली बाबा रसिका पागल की बुलंद आवाज़ सदा के लिए सो गई। तो अनुयायियों की आँखों से दुख का सागर बह चला।
रसिका पागल के गाये कुछ प्रसिद्ध भजन:
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करुणामयी कृपामयी मेरी दयामयी राधे . . .
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मेरा दिल तो दीवाना हो गया . . . मुरलीवाले तेरा . . .
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चलो जी चलो जी चलो वृंदावन, मैं रटूँगी तेरा नाम राधा रानी . . .
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कान्हा की दीवानी बन जाऊँगी, श्री राधा बरसाने वाली . . .
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तेरो पुजारी है गिरधारी . . .
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तू कान्हा मैं तेरी राधिका, बरसाने की राधा, श्री राधा राधा . . .
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मेरे कान्हा पे टोना कर गई . . .
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झूला झूलें श्यामा प्यारी . . .
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कजरारे तेरे मोटे मोटे नैन . . .
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आओ सुनाऊँ तुम्हें ब्रज की कहानी . . .
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ल भर के लिए कोई राधा नाम रट ले॥झूठा ही सही . . .
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मीरा दीवानी हो गई, मीरा मस्तानी हो गई . . .
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श्यामा प्यारी श्री कुंज बिहारी प्यारी की, जय जय श्री हरिदास दुलारी . . .
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