कभी- कभी
मन करता है
कि
तहस- नहस
कर दूँ
सारे नियम
जो बाँधते हैं
मुझे
अदृश्य ज़ंजीरों से।
जैसे पक्षी
झाड़ते हैं
अपने
पंख और उड़ जाते
उन्मुक्त गगन में
वैसे ही
उतार फेंकूँ
नियमों की चादर।
साँप की तरह
नियमों की केंचुल
छोड़ आऊँ
किसी जंगल या
पुरातन खंडहर में
और
नया जन्मूँ
जहाँ
कोई नियम न हों।