ख़ूबसूरत परिन्दे

01-09-2019

ख़ूबसूरत परिन्दे

धीरज श्रीवास्तव ’धीरज’

ओ परिन्दो!
तुम न उतरना धरा पर
उड़ते रहना आसमानों में
दूर...दूर...बहुत दूर
झूमते हुए, गाते हुए
ज़मीन पर खड़े लोगों की
निगाहों से दूर...उनसे परे
क्योंकि उनकी निगाह तुम पर है
क्योंकि तुम सुन्दर हो !
ख़ूबसूरत हो!


वो जकड़ना चाहते हैं तुम्हें
अपने लोहे के बेढब पिजरों में
लेना चाहते हैं वो
तुम्हारे सुन्दर पंख
अपने घर की दीवारों को 
सजाने के लिए
ताकि सुन्दर हो सके...उनका घर
वो नोंच लेना चाहते हैं
प्रकृति के इस सुन्दर घर को
अपने मन-बहलाव के लिए।


तुम मत आना नीचे
न उतरना इंसानों की बस्ती में
बस उड़ते ही जाना तुम
जब थक जाना
तो उतर आना किसी ऊँचे
पेड़ की डाल पर...और देखना
हम इंसानों को झुँझलाते हुए
ग़ुस्से से पैरों को पटकते हुए।


तुम ऐसे ही आते रहोगे
तो ख़त्म हो जाओगे एक दिन
क्या तुम्हें नहीं पता ?
तुम्हारे जैसी कितनी प्रजातियाँ
ख़त्म होती जा रही हैं
इस धरती से।


अब उनके बच्चे 
पढ़ते हैं तुम्हें किताबों में
ढूँढ़ते हैं तुम्हें
इतिहास के पन्नों में
कहते हैं 
‘तुम कभी थे, अब नहीं हो’
इस धरती में कहीं।


अब वो नहीं डरते तुमसे
अब तुम्हें डरना होगा उनसे
क्योंकि तुम ख़त्म होते जा रहे हो
कमज़ोर होते जा रहे हो
ख़त्म होती जा रही है
तुम्हारी सभ्यता
और तुम्हारी प्रजातियाँ।


ओ परिन्दो!
तुम न उतरना धरा पर।

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