वारिस

गीतिका सक्सेना (अंक: 177, मार्च द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

अपने जीवन के आखिरी पड़ाव पर हरीश का मन आत्मग्लानि से भरा हुआ था। उसे बेहद शर्मिंदगी थी अपनी सोच पर, अपने रवैए पर। लेकिन अब इतनी देर हो चुकी थी कि हरीश का पछतावा किसी काम का ना था। कहावत है ना "अब पछतावत होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत", स्नेहा यही तो कह गई थी उस से, अपने पिता से। आज हरीश के पास कुछ भी नहीं था ना घर, ना पैसा, ना परिवार। ऐसा नहीं कि ये सब उसके पास कभी नहीं था लेकिन उसने सब खोया अपनी पुरातनपंथी सोच की वज़ह से। पहले अगर उसने अक़्ल से काम लिया होता तो आज वो अकेला नहीं होता। आज उसके पास उसका पूरा परिवार होता, उसके दोनों बच्चे, स्नेहा और रोहन, होते और उसकी पत्नी आशा ज़िंदा होती। आशा की याद आते ही हरीश अतीत के पन्नों में खो गया।

क़रीब तीस साल पहले हरीश और आशा की शादी हुई थी। हरीश अच्छे खाते-पीते रईस ख़ानदान का लड़का था। उसके पिता का अपना व्यवसाय था जो अच्छा चलता था और हरीश वही सँभालता था। आशा एक मध्यम वर्गीय परिवार से थी लेकिन देखने में बेहद ख़ूबसूरत थी शायद इसीलिए हरीश ने शादी के लिए हाँ कर दी थी। शादी के बाद दोनों को पता चला कि वो दोनों एक दूसरे से कितने अलग हैं, एक पूरब था तो दूसरा पश्चिम। आशा एक समझदार लड़की थी तो हरीश दक़ियानूसी और घमंडी। क्योंकि आशा एक मध्यम वर्गीय परिवार से थी तो उसपर हुक्म चलाना तो वो अपना अधिकार समझता था वैसे भी वो अच्छी तरह जानता था कि आशा उसे छोड़कर कहीं नहीं जा सकती। ये तो शादी के बाद आशा को समझ आया था कि इसीलिए हरीश ने उस से शादी की थी। लेकिन वो कुछ नहीं कर सकती थी। उसकी तीन बहनें और भी थीं जिनका विवाह होना अभी बाक़ी था और पिता की आय के सीमित ही साधन थे; इसलिए वापस माता-पिता के घर जाना संभव नहीं था। जैसे-तैसे आशा ने इसे ही अपनी क़िस्मत समझकर अपनी ज़िन्दगी के साथ समझौता कर लिया था। 

एक साल बाद ही आशा ने स्नेहा को जन्म दिया, उसने सोचा अब तो बच्चे के सहारे समय अच्छा कट जाएगा वो कहाँ जानती थी कि हरीश उसकी ज़िन्दगी और मुश्किल बनाने वाला था क्योंकि उसने एक लड़की को जन्म दिया था। लड़की पैदा होने की ख़बर सुनते ही हरीश आगबबूला हो उठा। वो उसे पालना भी नहीं चाहता था आशा ने उसके बहुत हाथ-पैर जोड़े थे तब कहीं जाकर वो शांत हुआ था। स्नेहा पर एक रुपया भी ख़र्च करना उसे फ़िज़ूल लगता था। उसका मानना था कि लड़की तो शादी करके अपने घर चली जाएगी उस पर क्या पैसे ख़र्च करना, वंश तो बेटे से चलता है। हरीश ने कभी उस से प्यार के दो मीठे बोल नहीं बोले बोलना तो दूर उसे तो स्नेह की तरफ़ देखना भी मंज़ूर नहीं था। आशा के बस में जितना था उतना वो स्नेहा को ख़ुश रखने की कोशिश करती। उसका भी एक ही सहारा था ऐसे माहौल में। 

स्नेहा हर समय अपने माता-पिता को झगड़ते और माँ को रोते-बिलखते देखकर बड़ी हो रही थी। अभी वो पाँच साल की थी कि आशा चल बसी और पीछे छोड़ गई एक नवजात शिशु, रोहन। स्नेहा के लिए आने वाली ज़िन्दगी अपार तकलीफ़ों से भरी होने वाली थी। वो तो जैसे अनाथ हो गई, बाप उसे अपनी औलाद नहीं मानता था और माँ असमय ही काल का ग्रास बन गई। उसे लगा उसका भाई ही अब उसका सब कुछ है। वो अपनी पढ़ाई करती और रोहन का पूरा ध्यान रखती। हरीश रोहन पर अपना सब कुछ न्योछावर करता रहता और स्नेहा को पूरी तरह अनदेखा करता। स्नेहा भी बच्ची थी उसका भी मन मचलता खिलौनों को, नए-नए कपड़ों को और पिता के प्यार को लेकिन ये सब उसकी क़िस्मत में कहाँ। यूँ ही आठ वर्ष बीत गए। पिता के लाड़ प्यार से रोहन बेहद बिगड़ गया था, वो ज़िद्दी और बदतमीज़ होता जा रहा था। पढ़ाई ना करना, झूठ बोलना, पिता के पैसे चुराना ये सब वो मात्र आठ वर्ष की आयु में ही सीख गया था। हमेशा ग़लती करके पिता के सामने स्नेहा को दोषी बना देता और हरीश अक़्सर स्नेहा पर हाथ छोड़ देता ये देखकर रोहन का साहस दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा था। जब स्नेहा ने देखा कि उसका भाई भी उसका नहीं है तो उसने अपने आप को पढ़ाई में झोंक दिया। दसवीं के बाद जब हरीश ने उसकी पढ़ाई का ख़र्च देने से मना कर दिया तो उसने छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर अपनी फ़ीस भरनी शुरू कर दी। माँ की असमय मृत्यु और पिता के सौतेले से व्यवहार ने उसे छोटी सी उम्र में ही समझदार और परिपक्व बना दिया था। 

एक दिन वो घर के स्टोर में कुछ सामान ढूँढ़ रही थी कि उसके हाथ एक पुराना सूटकेस लगा उसने खोल कर देखा तो उसमें आशा की चीज़ें थीं। कुछ पुरानी फ़ोटो, उसकी और हरीश की शादी की एल्बम, कुछ साड़ियाँ और उनके बीच में एक पुरानी डायरी। स्नेहा ने डायरी और अपनी और आशा की फोटो उसमें से निकाल लीं। जब उसने डायरी खोलकर देखी तब उसे पता चला कि आशा डायरी लिखती थी। उसके हर पन्ने में उसकी तकलीफ़ों और दुखों की दास्तान लिखी थी। स्नेहा की आँखों से झरझर आँसू बह रहे थे कि तभी उसकी नज़र उन पन्नों पर पड़ी जिनमें आशा की मौत का राज़ क़ैद था। उसने पढ़ा कि रोहन से पहले आशा चार बार गर्भवती हुई लेकिन हरीश हर बार लिंग परीक्षण करवाया करता था और जब उसे पता चलता कि आशा की कोख में लड़की है तो उसने हर बार उसका गर्भपात करवा दिया। फिर पाँचवीं बार जब आशा गर्भवती हुई तब जाँच में दो बातें पता चलीं पहली ये कि इस बार आशा की कोख में लड़का है और दूसरी ये कि बार-बार गर्भपात करवाने के कारण इस बच्चे को जन्म देने में आशा की जान को ख़तरा था। मगर हरीश को कहाँ आशा की फ़िक्र थी वो तो ख़ुशी से पागल हुआ जा रहा था कि उसका वारिस आ रहा है। आशा धीरे-धीरे अपनी ज़िन्दगी ख़त्म होते हुए देख रही थी उसे अगर चिंता थी तो बस स्नेहा की। वो जानती थी धीरज उसे ज़रा भी प्यार नहीं करता। बस इसके आगे स्नेहा पढ़ ना सकी उसने डायरी बंद कर दी और बहुत देर तक फूट-फूट कर रोती रही। इस सच से उसके मन में हरीश के प्रति ग़ुस्सा और नफ़रत दोनों भर गए थे। वो उसकी शक्ल भी देखना नहीं चाहती थी। 

अभी वो ये सब सोच ही रही थी कि घर के दरवाज़े पर उसे कुछ शोर सुनाई दिया उसने देखा कि दो लड़के रोहन को पीट रहे थे क्योंकि उसने उनसे जुआ खेलने के लिए पचास हज़ार रुपये उधार कर लिए थे जो वो चुका नहीं सका था। बड़ी मुश्किल से उन लड़कों के हाथ-पैर जोड़कर स्नेहा रोहन को बचाकर घर के अंदर लाई। वो पहले ही परेशान थी और जुए की बात सुनकर उसका दिमाग़ और ज़्यादा ख़राब हो गया और उसने रोहन के गाल पर एक थप्पड़ जड़ दिया। तभी हरीश घर में घुसा उसने आव देखा ना ताव स्नेहा पर बरस पड़ा कि उसकी हिम्मत कैसे हुई रोहन को थप्पड़ मारने की। स्नेहा के लाख समझाने पर भी वो नहीं समझा; आख़िर स्नेहा के सब्र का बाँध टूट गया। उसने रोहन और हरीश से सारे संबंध तोड़ दिए और घर छोड़कर एक गर्ल्स हॉस्टल में रहने चली गई। 

कहते हैं ना पढ़ाई कभी बेकार नहीं जाती। ग्यारहवीं कक्षा की पढ़ाई करते समय स्नेहा ने शॉर्टहैंड टाइपिंग सीखी थी; वो ही उसके इस बुरे समय में काम आने वाली थी। बच्चों को ट्यूशन पढ़ने के साथ-साथ स्नेहा ने दो घंटे टाइपिंग की पार्ट टाइम जॉब कर ली; साथ ही उसने बी.एससी. में दाख़िला ले लिया। उसकी ज़िन्दगी आसान नहीं थी लेकिन उस क्लेश भरी ज़िन्दगी से बेहतर थी। समय यूँ ही पंख लगाकर उड़ गया। कठिनाइयों को सीढ़ी बनाकर वो ऊपर चढ़ती चली गई। उसने कभी पलटकर रोहन या हरीश की तरफ़ नहीं देखा। उन दोनों ने भी कभी उसकी ख़बर लेने की कोशिश नहीं की। 

क़रीब दस साल बीत गए। इन दस सालों में स्नेहा ने अपनी पढ़ाई पूरी की। अब वो एम.एससी. कर चुकी थी वो भी गणित में और उसने अपना एक कोचिंग इंस्टीट्यूट स्थापित कर लिया था जहाँ दसवीं से बी.एससी. तक के बच्चों को गणित पढ़ाई जाती थी। पहले वो वहाँ अकेली पढ़ाती थी फिर धीरे-धीरे उसका नाम होने लगा और बच्चे बढ़ने लगे तो उसने दूसरे और शिक्षक भी रखे। अब तो उसका इंस्टीट्यूट शहर के नामी इंस्टीट्यूट्स में एक था और वो एक अच्छी ज़िन्दगी जी रही थी। घर, गाड़ी, नौकर सब था उसके पास और सब उसने अपनी मेहनत से बनाया था। एक दिन वो रोज़ की तरह अपने इंस्टीट्यूट पहुँची तो उसने देखा एक बहुत ही दुबला-पतला बीमार सा दिखने वाला अधेड़ उम्र का आदमी उसके केबिन के बाहर बैठा है। पास पहुँची तो उसका दिल धक से रह गया, वो कोई और नहीं उसका पिता हरीश था। आश्चर्य भरे स्वर में वो बोली, "आप! यहाँ कैसे"? 

"तुमसे कुछ बात कर सकता हूँ"? हरीश ने पूछा। 

वो हरीश को अपने साथ अपने केबिन में ले आयी और बोली, "बताइए क्या बात है, इतने सालों बाद आपको मुझे ढूँढ़ने की ज़रूरत क्यों पड़ी?" 

हरीश ने जवाब दिया, “तुम सही कह रही हो बात आज ज़रूरत की ही है। मैं तुमसे माफ़ी माँगने आया हूँ, जो भी मैंने तुम्हारे साथ किया मुझे नहीं करना चाहिए था। मेरी पिछड़ी सोच ने मेरा घर बिगाड़ दिया। तुमने जब से घर छोड़ा बस मैं घटता ही चला गया। एक तरफ़ मुझे व्यवसाय में घाटा हो गया और मेरा सब कुछ नीलाम हो गया। अब मैं किराए के एक कमरे में रहता हूँ जिसका किराया देना भी मेरे लिए मुश्किल है तो दूसरी तरफ़ रोहन को जुए के साथ साथ शराब पीने की लत भी हो गई। जब मेरे पास उसके शौक़ पूरे करने को पैसा नहीं रहा तो उसने कुछ लोगों के साथ धोखाधड़ी करके उनका पैसा ऐंठ लिया और आजकल इसी जुर्म में जेल काट रहा है। मेरे पास उसे छुड़ाने के पैसे नहीं हैं। मुझे कुछ दिन पहले ही पता चला है कि मैं कैंसर से पीड़ित हूँ लेकिन अपना इलाज करवाने के लिए भी मेरे पास पैसे नहीं हैं। बेटा मुझे कुदरत ने बहुत दंडित किया है अगर तुम मुझे माफ़ कर दो तो मैं चैन से मर सकूँगा।"

"इस विषय में बाद में बात करेंगे पहले आप मेरे साथ डॉक्टर के पास चलिए,” स्नेहा ये कहकर हरीश को अपनी गाड़ी में बिठाकर हॉस्पिटल ले गई। यूँ तो वो हरीश से बेहद नाराज़ थी लेकिन कैंसर की बात सुनकर एक बेटी अपने पिता को कैसे यूँ ही मरने के लिए छोड़ देती। हॉस्पिटल में डॉक्टर ने स्नेहा को बताया कि हरीश का कैंसर तीसरी स्टेज में है और उसका इलाज शुरू हो जाना चाहिए जिसके लिए उसे हॉस्पिटल में ही रहना पड़ेगा। स्नेहा ने डॉक्टर से कहा कि इलाज का सारा ख़र्चा वो देगी और वो हरीश को हॉस्पिटल में छोड़ आयी। 

क़रीब एक महीने तक हरीश का इलाज चला अब वो पहले से बेहतर था। हरीश के डिस्चार्ज का दिन आया तो स्नेहा उसे एक सीनियर सिटीज़न होम में ले गई। उसने वहाँ हरीश के लिए एक कमरा बुक करवा दिया था। उसने हरीश से कहा, “मैंने आपसे कहा था ना बाक़ी सब विषय पर बाद में बात करेंगे। आप मेरे पिता हैं आपका इलाज करवाना मेरा फ़र्ज़ था। आप जब तक जीवित रहेंगे आपका ख़र्चा मैं उठाऊँगी लेकिन मैंने जो खोया उसे मैं कभी भुला नहीं सकती और आप शायद कभी समझ नहीं सकते कि मैं एक ख़ुशहाल ज़िन्दगी जीने को किस क़दर तरसी हूँ। आपने अपनी रूढ़िवादी सोच की बलि चढ़ा दिया मेरा बचपन और मेरी सबसे कीमती चीज़, मेरी माँ। मैं आपसे पूछती हूँ अगर बेटियाँ नहीं होतीं तो आप लोग पत्नियाँ कहाँ से लाते और कहाँ से लाते अपने ख़ानदान के वारिस? आज जब आपको ज़रूरत है– आपका वारिस कहाँ है जिसके लिए आपने मेरी माँ का तिरस्कार किया; उसे जानते बूझते एक अंधे कुएँ में धकेल दिया और मुझे कभी अपनी औलाद नहीं माना? क्या आज वो आपको सहारा दे सकता है? वारिस वो होता है जो अपने पिता की विरासत को बढ़ा सके, उसे सँभाल सके फिर चाहे वो लड़का हो या लड़की। लेकिन ये बात आप जैसी दक़ियानूसी लोग नहीं समझते। ख़ैर आपने पछताने में बहुत देर कर दी। माँ कब की चलीं गईं और मैंने बहुत पहले वो घर छोड़ दिया था। 

“बस आशा करती हूँ कि लोग आपको देखकर सबक़ लें और समझें कि लड़का और लड़की दोनों एक समान होते हैं, दोनों में फ़र्क नहीं करना चाहिए। बेटियों को भी उन सब चीज़ों का अधिकार है जिनका बेटों को है।” 

इतना कहकर स्नेहा कमरे से बाहर आ गई और हरीश बस उसे जाते हुए देखता रह गया। आख़िर रोकता भी तो किस अधिकार से।
 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें