हर घर कुछ कहता है

15-03-2024

हर घर कुछ कहता है

गीतिका सक्सेना (अंक: 249, मार्च द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

बंगलुरु से आने वाली एयर इंडिया की फ़्लाइट अभी दिल्ली एयरपोर्ट पर लैंड हुई ही थी कि पार्थ ने अपना फोन ऑन करके सबसे पहले समर्थ को फोन किया।

“सैम, मेरी फ़्लाइट लैंड हो गई है तू कहाँ है?”

“तू अपना लगेज पिक कर ले तब तक मैं पहुँच जाऊँगा,” दूसरी तरफ़ से समर्थ ने जवाब दिया।

समर्थ और पार्थ दोनों बचपन के दोस्त थे बल्कि दोस्त कम भाई ज़्यादा थे। दोनों एक ही कॉलोनी में रहते थे। पहले दोनों एक ही स्कूल और फिर एक ही कॉलेज में पढ़े थे। और वही दोस्ती आज तक क़ायम थी बल्कि अब तो दोनों रिश्तेदार भी थे।

अपना सामान उठाकर पार्थ एयरपोर्ट से बाहर आ गया और चारों तरफ़ समर्थ को ढूँढ़ने लगा। समर्थ की देर से आने की आदत से वो अच्छी तरह वाक़िफ़ था इसीलिए उसने रन-वे से ही उसे फ़ोन कर दिया था। बार-बार पार्थ कभी घड़ी देखता कभी सड़क मगर समर्थ का कहीं नाम ओ निशान नहीं था।

“साला कभी टाइम से नहीं आ सकता,” मन ही मन पार्थ अपने जिगरी दोस्त को गाली दे रहा था। क़रीब आधा घंटा बीतने के बाद समर्थ एयरपोर्ट पहुँचा और मज़ाकिया अंदाज़ में बोला, “आपका सारथी हाज़िर है पार्थ।”

पार्थ ने उसे घूरकर देखा और बोला, “क्यों बे साले कभी टाइम पर नहीं आ सकता? इतनी ठंड में आधा घंटे से खड़ा हूँ। तुम्हें आर्मी में होना चाहिए था थोड़ा अनुशासन सीख जाते।”

इतना सुनते ही समर्थ की हँसी छूट गई और वो बोला, “बस भाई आर्मी तेरे लिए ही ठीक है और हाँ अब जो तू ने साला कह ही दिया है तो ये भी बता दे कि मेरी बहन और भाँजी कैसी हैं?”

“मुझसे क्या पूछ रहा है हर रोज़ तुम दोनों भाई-बहन घंटों बात करते हो। अब तू जल्दी से सामान गाड़ी में रख और चल। सबसे पहले घर जाना है। तेरे पास टाइम है ना?”

“कैसी बात कर रहा है यार तेरे लिए टाइम ही टाइम है। पर क्या तू सच में घर जाना चाहता है”? समर्थ ने गंभीर स्वर में पूछा। वो जानता था घर जाना पार्थ के लिए कितना कठिन है।

लंबी साँस लेते हुए पार्थ बोला, “हाँ यार! इस बार ज़रूर जाऊँगा। माँ भी कई बार कह चुकी हैं कि घर देख कर आना। जबसे वो हमारे साथ रहने आई हैं तब से घर बंद पड़ा है, पता नहीं किस हाल में होगा।” समर्थ ने हामी भरते हुए गाड़ी पार्थ के द्वारका वाले घर की तरफ़ दौड़ा दी।

पूरे रास्ते गाड़ी में एक सन्नाटा सा छाया रहा। पार्थ किसी गहरी सोच में डूब कर बस खिड़की से बाहर देखता रहा। उसके चेहरे पर कभी दर्द तो कभी आत्म ग्लानि तो कभी उत्सुकता के भाव आ जा रहे थे। दूसरी तरफ़ समर्थ का पूरा ध्यान सड़क पर था मगर वो पार्थ के मन में उठ रही तरह तरह की भावनाओं को समझ रहा था; आख़िर समझता कैसे नहीं दोनों सुख-दुख के साथी जो थे।

थोड़ी देर में समर्थ ने गाड़ी पार्थ के घर के बाहर रोकी तो पार्थ अपने ख़्यालों की दुनिया से बाहर आया और नीचे उतरकर उसने अपने घर की तरफ़ देखा। उसे लगा जैसे वो किसी अपने के पास लौट आया हो। कोई ऐसा जिसने उसे बड़ा होते देखा है, जिसने उसे रोते–हँसते देखा है। कोई ऐसा जो उसकी हर हार और जीत का साक्षी था, कोई ऐसा जो हमेशा उसका इंतज़ार करता था।

समर्थ लगातार पार्थ को देख रहा था और उसके साथ चल रहा था। पार्थ धीरे-धीरे अपने घर की तरफ़ बढ़ा। उसने मेन गेट पर लटका बड़ा-सा ताला खोला और अंदर लॉन में आया। लॉन में खड़े होते ही उसने देखा दो बच्चे एक दूसरे के पीछे दौड़ रहे हैं। छोटा लड़का अपनी बड़ी बहन की चोटी खींचकर उसे परेशान कर रहा है और बहन उसकी पिटाई करने के लिए उसके पीछे दौड़ रही है। दौड़ते-दौड़ते दोनों घर के भीतर भाग गए कि तभी उनकी माँ ने उन्हें ज़ोर से डाँटा, “मिट्टी की चप्पल लेकर पूरे ड्राइंग रूम में दौड़ रहे हो। देखो सारा फ़र्श गंदा कर दिया। चलो दोनों मिलकर साफ़ करो।”

”मैं क्यों करूँ माँ ये पार्थ मेरी चोटी खींच-खींच कर मुझे परेशान कर रहा था। इस से कहो ये ही करेगा,” पार्थ की बड़ी बहन संगीता ने ग़ुस्से से उसकी तरफ़ देखते हुए कहा।

अभी पार्थ कुछ कहने ही वाला था कि माँ ने पार्थ का कान पकड़ते हुए कहा, “क्यों सता रहा है दीदी को? चलो दोनों पोंछा उठाओ और ये सारे निशान साफ़ करो।”

पार्थ अपना कान पकड़कर ज़ोर से चिल्लाया “आह! माँ दर्द हो रहा है।” और जैसे ही उसने निगाह उठाकर देखा तो चारों तरफ़ कोई नहीं था वो बड़े से ड्राइंग रूम में अकेला खड़ा था। इस याद ने उसके होंठों पे एक मधुर-सी मुस्कान ला दी थी।

पार्थ की आवाज़ सुनकर समर्थ दौड़कर अंदर आया लेकिन उसकी मुस्कुराहट देखकर वो समझ गया कि पार्थ पुरानी मीठी यादों में खो गया है और वो पार्थ को उसकी यादों के साथ अकेला छोड़कर दूसरे कमरे में चला गया।

पार्थ अभी कुछ क़दम अपने कमरे की तरफ़ चला ही था कि माँ ने रसोई से निकलकर पूछा, “आ गए तुम दोनों? चलो जल्दी से यूनिफ़ॉर्म बदलकर आ जाओ, आज मैंने पार्थ के मन पसंद राजमा चावल बनाए हैं।”

इतना सुनते ही संगीता पैर पटक कर बोली, “माँ तुम हमेशा पार्थ की ही पसंद का खाना बनाती हो, मेरी पसंद का तुम्हें ज़रा भी ख़्याल नहीं। बस ये ही तुम्हारा बेटा है।”

इस से पहले कि माँ कुछ कह पातीं पार्थ के पिता ने हँसकर कहा, “कोई बात नहीं बेटा शाम को मैं तुझे तेरी पसंद के समोसे और जलेबी खिलाने ले चलूँगा। अपनी माँ को पक्षपात करने दे, मैं हूँ ना।”

इतना सुनते ही पार्थ बोला, “पापा! पक्षपात माँ नहीं आप करते हो। कल जब माँ ने दीदी की पसंद का खाना बनाया था तब तो आप मुझे मेरी पसंद का खाना खिलाने नहीं ले गए थे।”

“अरे तू तो हमेशा मेरे पास रहेगा लेकिन ये कुछ सालों में शादी करके चली जाएगी। तब तक तो इस से लाड़ कर लूँ ,” पार्थ के पिता ने प्यार से संगीता के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा। तब पार्थ को ये बात समझ नहीं आई थी लेकिन जब उसकी बहन विदा होकर ससुराल चली गई और घर में सन्नाटा छा गया तब वो अपने पिता के कहे शब्दों का अर्थ समझ गया था। इस बात को याद करते-करते उसके मन मस्तिष्क में वो सारी भावनाएँ ताज़ा हो रही थीं जो उसने अपनी बहन के जाने के बाद महसूस की थीं और उसकी आँखें नम हो गईं।

जैसे ही पार्थ ने आगे बढ़कर अपने कमरे में क़दम रखा तो देखा उसके सारे मैडल, सारी ट्रॉफी जो उसने पढ़ाई में और शूटिंग में जीतीं थीं सब पहले की तरह ही क़रीने से उसके कमरे की दीवार पर टँगे थे। स्कूल के दिनों में ही उसे ना जाने कैसे शूटिंग सीखने का शौक़ लग गया था। जब ये बात उसने अपने पिता को बताई तो उन्होंने एक ट्रेनिंग अकादमी में उसका दाख़िला करवा दिया। बस फिर उसे रोकना नामुमकिन हो गया था। उसने नेशनल लेवल पर भी कई मैडल जीते और इसी बीच मन बना लिया कि वो आर्मी में जाना चाहता है। वो भी पैरा (स्पेशल फ़ोर्सेज) में जिसके लिए इंडियन आर्मी की पैराशूट रेजिमेंट में भर्ती किया जाता है और पैरा कमांडोज़ बँधक बचाव, आतंकवाद निरोध, व्यक्तिगत बचाव में विशेष रूप से पारंगत किए जाते हैं। पहले उसके माता पिता ने उसके इस फ़ैसले पर चिंता जताई लेकिन जब उन्होंने देखा कि वो अपनी बात पर अडिग है तो उन्होंने भी हामी भर दी थी। हालाँकि पहले वो पार्थ के फ़ैसले के ख़िलाफ़ थे लेकिन धीरे-धीरे उन्हें अपने बेटे पर फ़ख़्र होने लगा था।

जैसे ही पार्थ ने ज़रा सी नज़र घुमाई तो दूसरी दीवार पर उसे एक फोटो कोलाज दिखाई दिया। जिसमें एक फोटो उसकी और अंकिता की शादी की थी। समर्थ की छोटी बहन होने की वजह से वो बचपन से अंकिता को जानता था। लेकिन ये नहीं जानता था कि अंकिता उसे पसंद करती है, वैसे तो उसे भी अंकिता पसंद थी लेकिन समर्थ से गहरी दोस्ती होने की वजह से वो कुछ भी कहना नहीं चाहता था, उसे डर था कि अगर समर्थ बुरा मान गया तो उनकी दोस्ती में दरार पड़ जाएगी। वो तो समर्थ को किसी तरह अपनी बहन की भावनाओं का अंदाज़ा हो गया था और एक बार जब पार्थ छुट्टी लेकर घर आया तब उसने अकेले में मौक़ा देखकर पार्थ से अपने मन की बात की थी। समर्थ चाहता था कि अगर वो दोनों एक दूसरे को पसंद हैं तो दोनों की शादी की बात करनी चाहिए और पार्थ ने इस बात के लिए हाँ कर दी थी। दोनों परिवार एक दूसरे को बरसों से जानते थे सो सब तैयार हो गए और पार्थ और अंकिता विवाह के अटूट बँधन में बँध गए।

उसी कोलाज में कुछ फोटो उनके हनीमून की थीं तो कुछ उनकी पहली होली, दीवाली और करवा चौथ की। कुछ फोटो अकेले अंकिता की थीं क्योंकि सेना में होने के कारण पार्थ हमेशा घर नहीं आ पाता था।

इन्हीं फोटो में से एक पार्थ के लिए बहुत क़ीमती थी; जिसमें उसने अपनी बेटी को पहली बार गोद में लिया था। उसकी बेटी अमीषा जिसके चारों तरफ़ उसकी दुनिया घूमती है। बाप बेटी में इतना प्यार है कि जब दोनों साथ होते हैं तो उन्हें और कोई याद ही नहीं रहता। पार्थ हमेशा ही प्यार से उसे ‘प्रिंसेस’ कहता और वो भी पार्थ की मौजूदगी में अपने को किसी राजकुमारी से कम नहीं समझती। जब पार्थ की ज़िंदगी में अमीषा ने क़दम रखा तब वो अपने पिता और बहन के रिश्ते की गहराई को समझ पाया था। वो अच्छी तरह महसूस कर पा रहा था कि किस तरह उसके पिता कुछ ही वर्षों में सारे जीवन का लाड़, प्यार और दुलार संगीता पर न्योछावर करना चाहते होंगे।

वो पुराने ख़ूबसूरत पलों में खोया हुआ था कि उसके मोबाइल की घंटी बजने लगी और उसे अतीत से वर्तमान में वापस ले आई। फ़ोन को साइलेंट करके वो अपने कमरे से बाहर आ गया और दूसरे कमरों की तरफ़ बढ़ गया। संगीता का कमरा अब क़रीब-क़रीब ख़ाली था। बस एक अलमारी में उसके कुछ कपड़े पड़े थे और दीवार पर बचपन की कुछ तस्वीरें टँगी थी। पार्थ को एहसास हुआ कि संगीता की शादी को क़रीब दस साल हो चुके हैं मगर सब यादें इतनी ताज़ा थीं जैसे कल की ही बात हो। समय कहाँ पंख लगा कर उड़ गया पता ही नहीं चला।

अब पार्थ घर के आख़िरी कमरे के दरवाज़े पर पहुँचा-उसके मम्मी पापा का कमरा। वही कमरा जिसके अंदर जाने में उसके क़दम उसका साथ नहीं दे रहे थे। वही कमरा जहाँ समर्थ उसका इंतज़ार कर रहा था क्योंकि वो जानता था कि पूरे घर में यहीं वो दर्द भरी यादें हैं जिनकी वजह से पिछले एक साल से पार्थ अपने घर नहीं आया। वही यादें जो उसकी ग़लती ना होने के बावजूद भी उसकी अंतरात्मा को कचोटती हैं, जो उसे ये एहसास दिलाती हैं कि कहीं न कहीं वो बेटे का फ़र्ज़ नहीं निभा पाया। अभी पार्थ दरवाज़े पर खड़ा हिचकिचा ही रहा था कि समर्थ ने आकर उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा, “अंदर आजा दोस्त, तेरी कोई ग़लती नहीं थी।” पार्थ ने समर्थ को देखकर धीरे-से सिर हिलाया और कमरे के अंदर चला गया। जैसे ही उसने नज़र उठाई उसे अपने पिता की एक बड़ी-सी तस्वीर दिखाई दी जिस पर हार चढ़ा था। जिसे देखकर उसे एहसास हुआ कि उसके पिता अब इस दुनिया में नहीं हैं। वही पिता जो हर तकलीफ़ में उसका सहारा थे, वही पिता जो उसके आदर्श थे, वही पिता जो उसकी छोटी से छोटी ज़रूरत को पूरा करने के लिए ज़मीन आसमान एक कर देते थे। जिनका अंतिम संस्कार करना तो दूर वो उन्हें आख़िरी बार देख भी नहीं पाया था।

क़रीब एक साल पहले जम्मू कश्मीर के पुंछ ज़िले में आतंकवादियों के एक ठिकाने की ख़बर आर्मी को मिली थी और इंटेलिजेंस ब्यूरो को ये जानकारी मिली थी कि उनके पास भारी मात्रा में असलाह है और वो दिल्ली में कोई बड़ा धमाका करने की तैयारी कर रहे हैं। इस ख़बर के बारे में केवल कुछ ही लोग जानते थे क्योंकि अगर ये ख़बर बाहर आ जाती तो पूरे देश में डर का माहौल पैदा हो जाता। ऐसे में उन आतंकवादियों के ठिकाने पर हमला करने के लिए मेजर पार्थ सिन्हा की अगुवाई में पैरा कमांडोज़ का एक दल बनाया गया जिसका काम उनके ठिकाने की पूरी जानकारी लेना, उनकी गतिविधियों पर नज़र रखना और फिर पूरी तैयारी के साथ उनपर धावा बोलना था। इसके लिए पार्थ को बंगलुरु से कश्मीर भेज दिया गया। वो जानता था ऐसे मिशन की जानकारी वो किसी के साथ साझा नहीं कर सकता, अपने परिवार के साथ भी नहीं सो उसने बंगलुरु छोड़ने से पहले अपने माता पिता से, बहन से और समर्थ से बात की और सबको ये बता दिया कि अगले कुछ दिन उस से संपर्क नहीं हो पाएगा और वो बंगलुरु वापस लौटकर सबसे बात करेगा। ये मिशन पूरा होने के बाद जब पार्थ बंगलुरु लौटा तो क़रीब पच्चीस दिन बीत चुके थे और तब उसे पता चला कि उसके कश्मीर जाने के अगले दिन ही उसके पिता का हार्ट अटैक से देहांत हो गया था। उस से संपर्क साधने का कोई तरीक़ा नहीं था इसलिए संगीता के पति और समर्थ ने उनका अंतिम संस्कार कर दिया। हालाँकि दामाद से अंतिम संस्कार करवाने के लिए पार्थ की माँ तैयार नहीं थीं लेकिन संगीता ने जैसे तैसे उन्हें ये समझाकर मना लिया था कि दामाद भी बेटा ही होता है। जब पार्थ लौटा अंकिता अमीषा के साथ दिल्ली में थी अपनी सास के पास, उसने पार्थ से कहा भी कि वो छुट्टी लेकर घर आ जाए लेकिन पार्थ ने मना कर दिया और क़रीब हफ़्ते भर बाद अंकिता, अमीषा और अपनी माँ को बंगलुरु बुला लिया था। उसके बाद कभी दिल्ली आने की उसकी हिम्मत ही नहीं हुई। समर्थ ने उसके लिए पूरे संस्कार की वीडियो बनवाई थी, जिससे वो इस सत्य के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके कि उसके पिता अब इस दुनिया में नहीं हैं। मगर वो वीडियो कई बार देखने के बाद भी पार्थ कभी इस सच्चाई से समझौता नहीं कर सका कि यूँ अचानक उसकी ग़ैर मौजूदगी में उसके पिता उसे छोड़ कर चले गए। तब से वो अब पहली बार अपने घर आया था। ये सब कुछ किसी चलचित्र की तरह पार्थ की आँखों के सामने घूम रहा था और वो अपने पिता की तस्वीर के आगे ही ज़मीन पर बैठकर फूट-फूटकर रोने लगा। जबसे उसे ये ख़बर मिली थी उसने एक आँसू नहीं बहाया था क्योंकि वो इस बात पर यक़ीन ही नहीं करना चाहता था लेकिन आज वो सच जिस से वो भाग रहा था उसके सामने उसकी आँख से आँख मिलाकर खड़ा था।

समर्थ चुप खड़ा सब देखता रहा। वो चाहता था कि जो ग़ुबार पार्थ ने अपने अंदर भर रखा था वो बह जाए। जब उसने देखा पार्थ थोड़ा शांत हो गया है तब वो उसके बराबर में जाकर बैठ गया और उस से बोला, “तू कुछ नहीं कर सकता था पार्थ, तेरी कोई ग़लती नहीं थी। सब कुछ इतनी झटपट हो गया कि तू यहाँ होता तो भी अंकल को नहीं बचा पाता। मैं समझ सकता हूँ कि तुझे तकलीफ़ है कि तू उन्हें आख़िरी बार देख भी नहीं पाया और ना ही उनका अंतिम संस्कार करके बेटे का फर्ज़ निभा पाया लेकिन तू नहीं जानता कि अंकल को तुझ पर कितना नाज़ था। मुझे नहीं लगता कि वो कभी भी ये चाहते कि तू अपना काम छोड़कर उनके पास आ जाता। मैं नहीं जानता तू कश्मीर क्यों गया था लेकिन तू और तेरे जैसे सभी लोग इस देश के लिए जो भी कर रहे हो उसके लिए मेरे जैसा हर आम हिन्दुस्तानी तुम्हें सलाम करता है। तेरे पापा को तब भी तुझ पर गर्व था पार्थ और आज भी होगा। किसी को तुझ से कोई शिकायत नहीं है दोस्त, तू भी अब अपने मन से अपराध बोध की भावना निकाल दे।” इतना कहकर समर्थ खड़ा हो गया और पार्थ की तरफ़ हाथ बढ़ा कर बोला, “चल बे जीजा अब उठ जा वरना अंकिता मुझे चार बातें सुनाएगी कि मैंने तेरा ध्यान नहीं रखा।” समर्थ की बात सुनकर पार्थ के होंठों पर मुस्कुराहट आ गई और वो धीरे से बोला, “तू इसी लायक़ है साले, तू ने मुझे आधा घंटे एयरपोर्ट पर खड़ा रखा।”

इतना कहकर पार्थ और समर्थ दोनों उस कमरे से बाहर आ गए और अपना बचपन याद करने लगे। उस घर से दोनों की अनगिनत यादें जुड़ी थीं। कुछ देर बाद पार्थ ने उस घर पर आख़िरी निगाह दौड़ाई और वो सोच में डूब गया कि, “वैसे तो किसी भी चार दिवारी को मकान कह सकते हैं लेकिन हर मकान घर बनता है उसके रहने वालों से, उनके सपनों से, उनके प्यार से। आज भी उसका घर ख़ाली ज़रूर पड़ा है लेकिन उसमें अब भी रहती हैं उन सबकी खट्टी मीठी यादें और उनका प्यार। वही यादें जिन्होंने पिछले कुछ घंटों से उसे घेर रखा है और उसे ज़रा सा भी अकेलापन महसूस नहीं होने दिया।” उसे लगा जैसे हर घर अपनी एक कहानी कहता है जो बनती है उसमें रहने वाले किरदारों से।

यही सोचते-सोचते पार्थ समर्थ के साथ बाहर आ गया और गाड़ी में बैठते-बैठते अपने घर को निहारने लगा। उसे लगा जैसे वो घर उस से कह रहा हो कि, “इस बार इतने दिन मत लगाना, जल्दी लौटकर आना।” मन ही मन कुछ ऐसा ही निश्चय करके पार्थ समर्थ की गाड़ी में बैठ गया।

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