भरोसा

गीतिका सक्सेना (अंक: 197, जनवरी द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

मई 2019 की बात है, दिल्ली में पारा 40 डिग्री के पर जा चुका था लेकिन मुझे परिवार के एक विवाह समारोह में शामिल होने के लिए मुंबई से दिल्ली आना था। मुझे समय से पूर्व ही एयरपोर्ट पहुँचने की आदत है। सामान चेक इन करवाने के बाद कुछ किताबें ख़रीदकर लाऊँज में आराम से बैठना मैं बेहद पसंद करती हूँ, आख़िर आजकल की भागदौड़ वाली ज़िन्दगी में अपने लिए समय यूँ ही चुराना पड़ता है। ख़ैर हमेशा की तरह अपनी मन पसंद पत्रिका इंडिया टुडे ख़रीदकर मैं लाऊँज में पहुँची तो बोर्ड पर देखा कि मेरी फ़्लाइट 2 घंटे लेट थी। लोग परेशान से इधर–उधर टहल रहे थे लेकिन मैं आराम से बैठी अपनी मैगज़ीन पढ़ रही थी। कुछ देर बाद किसी ने बराबर वाली कुर्सी की तरफ़ इशारा करके मीठी आवाज़ में पूछा, “एक्सक्यूज़ मी! इज़ समवन सिटिंग हियर?” 

मैंने निगाह उठा कर देखा तो क़रीब बत्तीस तैंतीस साल की एक लड़की सामने खड़ी थी। देखने में पतली, लंबी, सुंदर, परिष्कृत, कपड़े देखकर लग रहा था जैसे किसी अच्छी कंपनी में कार्यरत है। ख़ैर, मैंने उसे बैठने का इशारा किया और मैं फिर से अपनी मैगज़ीन पढ़ने लगी। 

“आपकी फ़्लाइट भी लेट है?” उसने पूछा। 

मैंने कहा, “हाँ! आप भी दिल्ली जा रही हैं क्या?” 

उसने कहा, “जी हाँ! ऑफ़िस का कुछ काम है। वरना इतनी गर्मी में कौन दिल्ली जाना चाहता है। अरे! मैंने अपना परिचय तो दिया ही नहीं, मेरा नाम जाह्नवी है, मैं यहाँ मुंबई में एक कंपनी में सेल्स डिपार्टमेंट में हूँ,” उसने हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ मेरी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा। 

मैंने उससे हाथ मिलाया और कहा, “मेरा नाम गीतिका है। मैं एक लेखिका हूँ, हिंदी कहानियाँ लिखना मेरी विशिष्टता है।” 

“अरे वाह! सफ़र तो मैंने बहुत बार किया है लेकिन आज पहली बार किसी लेखिका के साथ सफ़र करूँगी। अपनी कुछ कहानियाँ मेरी साथ भी शेयर कीजिए ना, प्लीज़।” उसने कुछ इस अंदाज़ से कहा कि मैं मना नहीं कर सकी। 

वैसे भी पहली बार उसे देखा तब ही उसकी मुस्कान मनमोहक लगी थी। मैंने उसे अपनी दो कहानियाँ “गर्विता“और “वारिस“पढ़ने के लिए दे दीं। क़रीब दस मिनिट बाद वो बोली, “आप हमेशा स्त्री प्रधान कहानियाँ ही लिखती हैं?” 

मैंने कहा, “हाँ! मुझे लगता है एक स्त्री होने के कारण उनकी भावनाओं को अपनी क़लम से आवाज़ दे सकती हूँ।” 

वो कुछ देर सोच में पड़ गई; फिर बोली, “आप मेरी भावनाओं को आवाज़ दे सकती हैं?” 

“आप कहना चाहती हैं कि मैं आपकी कहानी लिखूँ?” मैंने आश्चर्य से पूछा। आज तक कभी किसी ने मुझसे ऐसा प्रश्न नहीं किया था, ना ही कभी किसी महिला ने यूँ सामने से अपनी कहानी ख़ुद लिखवानी चाही थी, कम से कम मुझसे तो नहीं।” 

“जी हाँ! मैं चाहती हूँ आप मेरी कहानी लिखें। मैं वादा करती हूँ आप निराश नहीं होंगी।” 

अजीब कशमकश थी ना हाँ करते बनता था ना मना करते। फिर मैंने कहा, “ठीक है, इसका फ़ैसला आपकी कहानी सुनने के बाद करेंगे।” 

वो मुस्कुराई, फिर गंभीर स्वर में बोली, “ये कहानी आपके मन में मेरे प्रति तरह तरह के विचार लाएगी, हो सकता है इसका अंत होते-होते आप मुझसे घृणा करने लगें। इसे लिखना तो दूर शायद मेरे साथ बैठना भी न चाहें।” 

उसकी बातें सुनकर मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। 

उसने कहना शुरू किया, “मैं एक अनाथ लड़की हूँ, मेरी माँ मुझे जन्म देने के बाद हॉस्पिटल में ही छोड़ कर चली गई थी और वहाँ के कर्मचारियों ने मुझे एक अनाथ आश्रम में छोड़ दिया। जब से होश सँभाला उस अनाथ आश्रम की मैनेजर को ही अपना हमदर्द अपना रिश्तेदार समझा। वो अच्छी महिला थीं; मेरी तरह सभी बच्चे उन्हें प्यार करते थे और बदले में वो भी हमें अपने बच्चों की तरह ही समझती थीं। अच्छी बातें सिखाती, ग़लत बातों पर हमें डांटती भी थीं और समझाती भी। उन्होंने छोटेपन से ही हमें बहुत सी अच्छी बातें सिखाईं। हम सब उन्हें प्यार से मौसी कहते थे। माँ तो हमें पता ही नहीं थी क्या होती है, कैसी होती है? हम सब जानते थे हमारे माँ-बाप हमसे प्यार नहीं करते थे बल्कि शायद हम उनपर बोझ थे तभी तो सब यहाँ थे। अक़्सर ही कोई न कोई मौसी से पूछता, ’मौसी मेरे आई बाबा मुझे यहाँ क्यों छोड़ गए?’ वो बेचारी भी क्या जवाब देती बस कैसे ना कैसे बात बदल देती थी। मैं आज भी अपनी माँ के बारे में सोचती हूँ तो समझ नहीं आता उसकी कैसी तस्वीर खींचूँ अपने मन में, किसी अबला बेसहारा औरत की या एक पत्थरदिल औरत की जो अपनी नन्ही सी बच्ची को कुछ अजनबियों के भरोसे छोड़ कर भाग गई। एक बार मैंने उसे ढूँढ़ने की ठानी लेकिन हॉस्पिटल में जो पता लिखा था वो तो ग़लत था; मतलब वो चाहती ही नहीं थी कि कोई उसे ढूँढ़ पाए। मुझे आज तक समझ नहीं आया कि उसने मुझे पैदा ही क्यों किया पहले ही मार देती, जो ज़िन्दगी वो मुझे दे रही थी वो कोई जीने लायक़ तो नहीं थी। चलिए जो भी हो अनाथ आश्रम में भी ज़िन्दगी ठीक ही थी। हम सभी सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते थे; मुझे पढ़ाई करना बहुत अच्छा लगता था जब मैं क़रीब बारह साल की थी तब हमारे आश्रम में कुछ एनजीओ वाली दीदी आती थीं जो बहुत अच्छी अँग्रेज़ी बोलती थीं मैंने उनसे कहा, “दीदी मैं भी आपके जैसी अँग्रेज़ी बोलना चाहती हूँ।” उन्होंने कहा, “अच्छा मैं सिखा दूँगी”। उन्होंने मुझे कुछ किताबें भी लाकर दे दीं और मुझे पढ़ाया भी बस फिर क्या धीरे धीरे अँग्रेज़ी इंग्लिश बन गई। अनाथ आश्रम में ही खाना बनाना, सिलाई बुनाई सब सिखाया जाता है जिस से शादी के बाद कुछ काम कर सको, घर चला सको। हमारे अनाथ आश्रम में एक प्रचलन था जब लड़कियाँ अठारह साल की हो जाती थीं तो उनके लिए कुछ लोअर मिडल क्लास लड़के ढूँढ़कर सामूहिक विवाह कर देते थे। एनजीओ वाले चंदा इकट्ठा करके दहेज़ में लड़के को साइकिल, लड़की को सिलाई मशीन और रसोई का कुछ सामान दे देते। मैं हर साल ही ऐसा होते देख रही थी लेकिन जब मेरी उम्र क़रीब सोलह साल की हुई और मुझे अपना भविष्य भी ऐसा दिखाई दिया तो मुझे ये चलन बुरा लगने लगा। मौसी अक़्सर कहती थीं, ’तेरा दिमाग़ ख़राब हो गया है। चार अक्षर अँग्रेज़ी के बोल लेने से कोई राजकुमार नहीं मिल जाएगा तुझे।’ मैं सोच में पड़ जाती कि क्या वाक़ई ये भाषा का असर है मुझ पर क्योंकि मैं ख़ुद भी नहीं जानती कि कब मैं ऐसा सोचने लगी थी। ख़ैर क़िस्मत ने कुछ ज़ोर मारा; मेरे ट्वेल्थ क्लास के एग्ज़ाम थे मैं स्कूल जा रही थी कि रास्ते में देखा एक लड़के की जेब से उसका पर्स गिर गया। मैंने उसे देखा तो लड़का पढ़ा लिखा लगा। देखने में साँवला, लंबा पतला दुबला। मैंने जल्दी से अँग्रेज़ी में उसे पुकारा, ’एक्सक्यूज़ मी! इज़ दिस वॉलेट योर्स? आई थिंक यू ड्रॉप्ड इट।’ उसने पलटकर देखा, मेरे पास आया और थैंक यू कहकर वॉलेट लेकर भीड़ में कहीं गुम हो गया। मैंने सोचा इतनी अँग्रेज़ी भी बोली मगर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। ये सच है कि उसे प्रभावित करने के लिए ही मैंने इंग्लिश बोली थी। मेरी समझ के हिसाब से उस समय मेरे लिए करो या मरो की स्थिति थी। मैं सोचती थी अगर मुझे कोई राजकुमार नहीं मिला तो मुझे भी उस सामूहिक विवाह की बलि चढ़ना होगा। आज सोचती हूँ कि मात्र सत्रह साल की थी मैं और दिमाग़ था कितना मेरे अंदर जो अपने लिए राजकुमार ढूँढ़ने चली थी। उस दिन मेरा मन किसी काम में नहीं लगा। एग्ज़ाम भी ठीक-ठाक ही हुआ। अगले दिन मैं स्कूल जाने के लिए निकली तो उसी जगह वो लड़का खड़ा था। मैंने दूर से ही उसे देख लिया था लेकिन उसे न देखने का नाटक किया। उसने आवाज़ लगाई, ’एक्सक्यूज़ मी’; मैं जानती थी वो मुझे बुला रहा था फिर भी एक मिनिट बाद पलटकर देखा। वो मेरे पास आया और बोला, ’कल मैं ज़रा जल्दी में था इसलिए ठीक से थैंक यू नहीं कह पाया। आपने मेरा पर्स लौटाकर मुझे बड़ी मुसीबत से बचा लिया, उसमें पैसों के साथ साथ मेरे बैंक के कार्ड्स, आधार कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस वग़ैरह सभी कुछ था।’ मैंने जानबूझकर लापरवाही भरे स्वर में कहा, ’फिर भी आप ऐसी चीज़ सँभालकर नहीं रखते। चलिए कोई बात नहीं ग्लैड टू हेल्प यू।’ इतना कहकर मैं पलटी ही थी कि उसने कहा, ’अपना नाम तो बता जाइए, क्या हमेशा आपको एक्सक्यूज़ मी कहकर ही बुलाना पड़ेगा।’

’मेरा नाम जाह्नवी है,’ मैंने कहा।

’मेरा नाम अनुज है, मैं पूछना चाहता था कि क्या आप मेरे साथ कॉफ़ी पीने चलेंगी जाह्नवी।’

“मैं बता नहीं सकती ये सुनकर मेरे मन में कितने लड्डू फूटे थे फिर भी कुछ दो मिनट सोचकर मैंने कहा, ’हाँ चल सकते हैं, आप कल शाम को चार बजे मुझे यहीं मिलियेगा। अभी मैं लेट हो रही हूँ, मुझे जल्दी स्कूल पहुँचना है।’ 

“इतना कहकर मैं स्कूल की तरफ़ चल दी। आज तो मेरे पैर ज़मीन पर नहीं टिक रहे थे, ख़ुशी के मारे मैं सातवें आसमान पर पहुँच गई थी। हमारे अनाथ आश्रम में लोग अपने बच्चों के पुराने कपड़े छोड़ जाते थे वही छाँट कर हम अपने लिए कपड़े रख लेते थे। उन्हीं में से एक गुलाबी रंग का सूट निकालकर मैं तैयार हुई और ठीक चार बजे उसी जगह पर पहुँच गई। कुछ 10 मिनट बाद मेरे सामने एक सफ़ेद वैगन आर आकर रुकी उसमें से अनुज उतरा और बोला, ’सॉरी ट्रैफ़िक की वजह से लेट हो गया, आओ बैठो चलते हैं।’ 

“मेरे लिए तो अनुज जैसे सफ़ेद गाड़ी में नहीं बल्कि सफ़ेद घोड़े पर सवार होकर आया मेरा राजकुमार था। हम कॉफ़ी पीने बैठे तो बातों बातों में मैंने उसे बताया कि मैं एक अनाथ हूँ और अनाथ आश्रम में पली-बढ़ी हूँ लेकिन उसे इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। अनुज के माता-पिता भी असमय चल बसे थे अब उसका भी कोई नहीं था और मुंबई में वह एक कंपनी में नौकरी करता था। बस इसके बाद हम अक़्सर ही मिलने लगे। उसने मुझे एक ऐसी दुनिया दिखाई जिसकी कल्पना भी मैंने कभी नहीं की थी। प्यार, मोहब्बत, अपनापन यह शब्द सुने तो ज़रूर थे लेकिन कभी एहसास नहीं किया था। शुरू में तो अनुज मेरे लिए उस सामूहिक विवाह से बचने का एक विकल्प मात्र था लेकिन धीरे-धीरे मैं उससे मुहब्बत करने लगी। इसी तरह क़रीब चार महीने निकल गए, अनुज के और मेरे बीच सब अच्छा चल रहा था। मौसी सब देख समझ रहीं थीं एक दिन उन्होंने मुझसे अनुज के बारे में पूछा तो मैंने उन्हें सब सच-सच बता दिया। उन्होंने मुझे समझाया कि मैं थोड़ा सब्र रखूँ और वो एनजीओ वालों से अनुज की तहक़ीक़ात करवाएँगी लेकिन मैं कहाँ कुछ सुन ने को तैयार थी; कहते हैं ना सावन के अंधे को सब तरफ़ हरा ही हरा नज़र आता है मेरा हाल भी कुछ वैसा ही था। हमारे अनाथ आश्रम में उन सभी लड़कियों के लिए लड़के ढूँढ़े जाने लगे जो अठारह साल की होने वाली थी जैसे जैसे सामूहिक विवाह की तैयारियाँ होने लगी मेरी बेचैनी बढ़ने लगी। आख़िर एक दिन मेरे अठारह साल के होने से पहले मैं अनुज के साथ भाग गई और कुछ दिन बाद जब मैं अठारह साल की हो गई तब हमने कोर्ट मैरिज कर ली। फिर मैंने कभी पलटकर उस अनाथ आश्रम की तरफ़ नहीं देखा। 

“अनुज एक कमरे के फ़्लैट में किराए पर रहता था, मेरे लिए तो वो एक कमरे का फ़्लैट ही सारी दुनिया था। बचपन में स्कूल में टीचर ने पढ़ाया था घ से घर पर आज ज़िंदगी में पहली बार वो घर मेरे पास था। क़रीब दो साल बाद मैंने एक बेटी को जन्म दिया। एक समय था जब मेरे पास अपना कहने को कुछ नहीं था और आज सब कुछ था जिसे मैं अपना कह सकती थी। मेरा पति, मेरा घर, मेरी बेटी अनुजा; मैं इस नई ज़िन्दगी में ख़ुश थी और संतुष्ट भी। अनुज की तनख़्वाह में घर ठीक ही चल जाता था। लेकिन इन दो सालों में मैंने जाना कि अनुज एक अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति है। साम, दाम, दण्ड, भेद वो हर क़ीमत पर आगे बढ़ना चाहता था। मैं अक़्सर उसे समझाती कि तरक़्क़ी करने का कोई शॉर्ट कट नहीं होता उसके लिए बस मेहनत करनी पड़ती है लेकिन मेरी बात उसे कभी समझ नहीं आती थी। वो बहुत जल्दी ढेर सारा पैसा कमाना चाहता था फिर चाहे उसके लिए कोई भी क़ीमत चुकानी पड़े। अनुजा के पैदा होने से पहले मैं और अनुज साथ बैठकर कभी-कभी शराब पिया करते थे। हालाँकि मैंने शादी से पहले कभी शराब नहीं पी थी लेकिन जब पहली बार अनुज ने ये प्रस्ताव रखा तो मैंने सोचा वो बाहर दोस्तों के साथ पिए उस से अच्छा मैं ही उसका साथ दे देती हूँ। पहली बार ही उसने मेरी लिमिट देखने को मुझे तीन पैग पिला दिए और फिर मैं ऐसी बेसुध सोई कि अगले दिन सुबह तेज़ सिरदर्द के साथ उठी, शायद इसे ही ब्लैक आउट कहते हैं। उस दिन के बाद मैंने कभी एक पैग से ज़्यादा नहीं पी और अनुज ने कभी ज़िद भी नहीं की। 

“जब अनुजा क़रीब दो साल की हुई तब अनुज ने एक दिन फिर साथ बैठकर पीने का प्लान बनाया। मैंने भी हाँ कर दी ये सोचकर कि जबसे अनुजा हुई है हम दोनों ने साथ पी ही नहीं। उस दिन अनुज ने मेरे मना करने के बावजूद मुझे ज़बरदस्ती तीन पैग पिला दिए और फिर वही हुआ जिसका मुझे डर था, मुझे बिल्कुल होश नहीं रहा और मैं ऐसी सोई कि सुबह ही उठी। अगली सुबह मैंने अनुज से पूरी दृढ़ता से कहा कि अब कभी भी मैं तुम्हारे साथ शराब नहीं पियूँगी। अनुज कुछ नहीं बोला बस तैयार होकर ऑफ़िस चला गया। अब वो कभी-कभी दोस्तों के साथ पीने लगा। एक दिन वो नशे में इतना धुत्त लौटा कि उसका एक दोस्त उसे घर छोड़ने आया था। उसकी ये हालत देख कर मेरा पारा चढ़ गया और मैंने ज़ोर से चीख कर कहा, ’ये क्या तरीक़ा है पीने का? कोई शरीफ़ आदमी इस तरह घर लौटता है क्या?’ 

“मगर वो कहाँ होश में था जो मेरी बात सुनता। उल्टा मेरे गले में बाँहें डाल कर बोला, ’डार्लिंग मेरा बॉस तुझपर मर गया है एक बार तुझसे किसी फ़ाइव स्टार होटल में मिलना चाहता है तभी मेरा प्रमोशन करेगा।’ और पलंग पर धम्म से गिर गया। मुझे तो काटो तो ख़ून नहीं लेकिन इतना ही काफ़ी कहाँ था। इसके आगे अनुज ने बड़बड़ाते हुए अपने बॉस को दो तीन गाली दी और लड़खड़ाती हुई ज़ुबान में बोला, ’साले का एक रात में मन नहीं भरा तू होश में नहीं थी ना।’ ये सुनकर तो मैं सन्न रह गई। ये क्या कहा अनुज ने; ’एक रात में मन नहीं भरा’, कौन सी रात? मुझे तो ऐसी कोई बात याद नहीं। मेरे दिमाग़ ने जैसे काम करना बंद कर दिया था। 

“पूरी रात मैं कुछ सोच नहीं सकी बस अनुज की बातें ही मेरे दिमाग़ में गूँजती रहीं। कभी लगता मैंने कुछ ग़लत सुना है, कभी लगता अनुज ने यूँ ही बात बना दी लेकिन जिस आदमी को अपने जूते उतारने का भी होश ना हो वो क्या झूठ बोलेगा और क्या बात बनाएगा। पूरी रात यूँ ही बीत गई। सुबह अनुज देर से उठा तब तक मैंने रोज़ की तरह उसके ऑफ़िस जाने की तैयारी कर दी। वो मेरे पास आया तो मेरी उस से बात करने की इच्छा नहीं हुई। मुझे उस से घृणा हो रही थी। उसने मुझसे बार-बार जानना चाहा कि कहीं नशे में उसने मुझसे कुछ कहा तो नहीं लेकिन हर बार मैंने मना कर दिया। उसे लगा कि मैं उसके यूँ नशे में धुत्त लौटने से नाराज़ हूँ। मुझे समझ आ गया था कि बिखरने से कुछ नहीं होगा उससे अनुज दोबारा भी मेरा फ़ायदा उठा सकता था। बल्कि मुझे ठंडे दिमाग़ से बैठकर सोचना पड़ेगा इसलिए जब अनुज ऑफ़िस चला गया मैंने शान्ति से बैठकर सब बातों को जोड़ना शुरू किया। लेकिन कितना भी सोचने पर मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि मेरे साथ इतना कुछ हो गया और मुझे पता कैसे नहीं चला और ये भी कि अनुज के बॉस से मैं कभी मिली ही नहीं तो वो मुझपर फ़िदा कैसे हो गया। मेरा सर दर्द से बुरी तरह फटा जा रहा था। तभी अनुज की बाक़ी आधी बात मेरे कानों में गूँज उठी कि मैं होश में नहीं थी। 

“अब मेरा दिमाग़़ तेज़ी से दौड़ रहा था, मुझे याद आया इस घटना के कुछ तीन चार महीने पहले अनुज की  कंपनी का एनुअल इवेंट हुआ था वहाँ नवनीत यानी उसके बॉस से मुलाक़ात हुई थी। अब तो मुझे वो रात भी याद आ गई जब अनुज ने मेरे मना करने के बावजूद मुझे तीन पैग पिलाए थे। मुझे सुबह उठकर कुछ महसूस हुआ था लेकिन अनुज के अलावा भी कोई हो सकता है ऐसा तो मैं दूर-दूर तक नहीं सोच सकती थी। मैं जानती थी कि अनुज के सपने बहुत ऊँचे हैं और उनके लिए वह कोई भी क़ीमत चुका सकता है लेकिन यह कभी नहीं सोचा था कि खाने की एक डिश की तरह मुझे भी किसी के सामने यूँ परोस सकता है। मुझे उस से जितनी मोहब्बत थी उतनी ही नफ़रत हो रही थी। ग़ुस्से से मैं पागल हुई जा रही थी और सिर्फ़ दो बातें सोच रही थी एक उसे छोड़ने की और दूसरा उस से बदला लेने की। सबसे पहले मुझे ये सोचना था कि उसे छोड़कर मैं जाऊँगी कहाँ? मेरे पास न कोई दोस्त था ना रिश्तेदार और न ही पैसा। उसपर अनुजा उसे कहाँ रखूँगी? एक बार मन में आया उसे अनुज के पास ही रहने दूँ क्योंकि वो उसकी परवरिश ठीक से कर सकता था। लेकिन फिर सोचा जिसने अपनी पत्नी पर तरस नहीं खाया उसका क्या भरोसा कल पैसों के लिए अपनी बेटी को भी बेच देगा। मैंने तय किया अनुजा को तो साथ ही ले जाना है। अनुजा को गोद में लेकर मैं घर के बाहर सड़क पर खड़ी हो गई और सोचने लगी अब क्या करूँ? ये घर छोड़ने के बाद तो मेरे पास उसे दूध पिलाने के भी पैसे नहीं हैं। इसे ले जाकर कहाँ छोड़ दूँ इस बेरहम दुनिया में जहाँ माँ बेटी की सगी नहीं है, पति पत्नी का सगा नहीं है। फिर समझ में आया कि शान्ति से सोच समझकर कोई क़दम उठाना होगा। इतनी बड़ी दुनिया में किसी पर भी विश्वास नहीं कर सकती थी। बस मैं चुपचाप घर के अंदर आ गई। 

“आज भी सोचती हूँ मेरी क्या ग़लती थी? हर औरत अपने पति पर भरोसा करती है, मैंने भी तो बस वही किया और उसके अलावा मेरे पास अपना था ही कौन? ऐसा लग रहा था जैसे मैं फिर से अनाथ हो गई। जब माँ हॉस्पिटल में छोड़कर गई तब कम से कम अनाथ आश्रम तो था पर अब . . .  कैसे मोड़ पर पहुँच गई थी मैं। ख़ैर इसके बाद मैंने अनुज से बात करना बिल्कुल बंद कर दिया। वो पूरी कोशिश करता रहा लेकिन उसकी शक्ल भी देखना मुझे गवारा नहीं था, मैं तो बस भागने का प्लान बना रही थी। मेरे दिमाग़ में तरह तरह की बातें आ रही थी कभी सोचती इसकी पुलिस कंप्लेंट करती हूँ लेकिन कोई सबूत तो था नहीं और मान लो अगर सबूत दे भी देती किसी तरह इसे और नवनीत को फँसा कर तो कोर्ट कचहरी किसके बस की थी। 

“दो दिन बीत गए अनुज से बदला लेने की भावना में मैं अपने होश खो बैठी थी। मैंने जैसे क़सम खा ली थी कि चाहे कुछ भी करना पड़े उसकी ज़िंदगी तहस-नहस करके दम लूँगी; अच्छा बुरा, सही ग़लत सारे भेद बदले के जुनून में ख़त्म हो गए थे। तीसरे दिन मैंने मौक़ा देख कर अनुज के फ़ोन से नवनीत का नंबर ले लिया और अनुज के ऑफ़िस जाने के बाद उसे फ़ोन करके एक रेस्टोरेंट में मिलने बुलाया। मैं अनुजा को बाई के भरोसे छोड़ वहाँ पहुँची तो नवनीत पहले से वहाँ मौजूद था। मुझे देखकर उसने मेरे लिए कुर्सी सरकाई और वेटर को बुलाकर दो कॉफ़ी और कुछ स्नैक्स ऑर्डर किए फिर मुझसे बोला, ’बताओ तुम मुझसे क्यों मिलना चाहती थीं?’ मैंने उसे बताया कि किस तरह मुझे सब कुछ पता है और उस से पूछा कि क्या वाक़ई वो अनुज का प्रमोशन इसी शर्त पर करेगा? उसने कहा, ’जब तुम सब जान और समझ ही गई हो तो खुलकर बात कर सकते हैं। जब मैंने तुम्हें अपनी कंपनी के एनुअल इवेंट में देखा था तभी से तुम्हें पसंद करने लगा था। ये भी सच है कि मैंने अनुज के सामने ये शर्त रखी थी और ये भी कि उस दिन तुम्हारे घर मैं आया था। तुम्हें हासिल करने का जैसा भी मौक़ा मुझे मिला मैंने अपनाया। अब तुम बताओ तुम क्या चाहती हो?’ मेरे दिमाग़ में कैसे कैसे विस्फोट हो रहे थे मैं बता नहीं सकती। 

’आप मुझसे शादी करेंगे?’ मैंने सीधा सवाल नवनीत से पूछा। उसे शायद इसकी उम्मीद नहीं थी वो सकपका गया और नज़रें झुका के बोला, ’मैं शादीशुदा हूँ। मेरे दो बच्चे हैं और मैं उन्हें कभी नहीं छोड़ सकता। फिर भी तुम्हारा पूरा ध्यान रख सकता हूँ, तुम्हें घर दे सकता हूँ लेकिन शादी के बिना।’

’मैं भी तो शादीशुदा हूँ, मेरे भी तो एक बेटी है। ये आपने नहीं सोचा। आप जिसे पसंद का नाम दे रहे हैं वो आपकी वासना है, हवस है जिसने मेरा घर उजाड़ दिया। अब मैं अनुज के साथ एक छत के नीचे साँस भी नहीं ले सकती,’ मैंने तैश में कहा।

’देखो जाह्नवी जो हो गया उसे तो मैं बदल नहीं सकता जो कर सकता हूँ तुम्हें बता चुका हूँ।’

’ठीक है, मुझे आपका ऑफ़र मंज़ूर है लेकिन मेरी कुछ शर्तें हैं आख़िर मैं इतनी सस्ती नहीं कि आप मेरे नशे में होने का फ़ायदा उठा कर चलते बने। मेरी पहली शर्त है, आप अनुज को नौकरी से निकालेंगे और वो भी इस तरह कि उसे फिर और कहीं नौकरी न मिले। मैं चाहती हूँ वो पैसे-पैसे को मोहताज हो जाए। मेरी दूसरी शर्त है मैं अपनी बेटी को अपने साथ लेकर आऊँगी और आप उसकी पढ़ाई का पूरा ख़र्चा उठाएँगे। मैं चाहती हूँ वो आत्मनिर्भर बने ताकि कल कोई पुरुष उसे छल ना सके।’ इतना कहकर मेरी आँखों से झर-झर आँसू बह निकले। 

“जब से अनुज के मुँह से सच सुना आज पहली बार मेरी आँखों में पहली बार आँसू आए थे। मेरी ज़िंदगी ने भी कैसी पलटी मारी थी कि आज मैंने ख़ुद को बेच दिया था अनुज की बरबादी और अनुजा के भविष्य के लिए। नवनीत ने मेरी दोनों शर्तें मानी और उसी दिन मेरे और अनुजा के लिए रहने के लिए एक फ़र्निश्ड वन बीएचके का इंतज़ाम कर दिया और तय हुआ कि मुझे और अनुजा को लेने वो शाम को अनुज के घर आएगा। क़रीब पाँच बजे अनुज लौटा तो बेहद परेशान था। आकर उसने बताया कि उसकी नौकरी चली गई और उस पर कंपनी के ज़रूरी दस्तावेज़ ग़ायब करने का आरोप लगाया है। वो कह रहा था कि, ’मुझे कहीं नौकरी नहीं मिलेगी और कोर्ट केस चलेगा वो अलग। जाह्नवी तुम जानती हो ना मैं ऐसा नहीं कर सकता। तुम तो मुझ पर विश्वास करो। हम बर्बाद हो जाएंगे।’ इतने में नवनीत भी आ गया। अनुज उसे देख कर चौंक गया। मैंने उस से कहा, ’बर्बाद हम नहीं होंगे तुम हो गए हो अनुज। उस रात शराब के नशे में तुमने सब बक दिया था और ये है उसका फल। जब तक तुम ख़ुद को बेगुनाह साबित कर पाओगे तब तक तुम्हारा कैरियर पूरी तरह ख़त्म हो चुका होगा। तुम हर क़ीमत पर क़ामयाबी की सीढ़ी चढ़ना चाहते थे ना तो ये डसा तुम्हें निन्यानवे पर बैठे साँप ने अब तुम कभी उठ नहीं पाओगे। और हाँ तुमने मेरा सौदा किया था ना नवनीत के साथ तो मैं और अनुजा; नहीं! मैं और जया उसी के साथ जा रहे हैं।’ इतना कहकर मैं दरवाज़े पर खड़े नवनीत की तरफ़ मुड़ी और उसे चलने को कहा। 

“अनुज हमारे पीछे दौड़ा बहुत रोया, माफ़ी माँगी लेकिन मैं नहीं रुकी। सच बताऊँ अगर मेरी सगी माँ भी मुझे कभी मिल जाती ना तो मैं उसे भी कभी माफ़़ नहीं करती उसकी ज़िंदगी भी तहस-नहस कर देती। मैंने गाड़ी में बैठकर नवनीत से कहा, ’क्या आप किसी कॉल सेंटर में मेरी जॉब लगवा सकते हैं? मैं अपना ख़र्चा ख़ुद चलाना चाहती हूँ।’ नवनीत ने कोई वादा नहीं किया लेकिन उसने कहा कि वो कोशिश करेगा। उस दिन से मैं और जया नवनीत के दिए घर में रह रहे हैं और मैं अनुज की पत्नी से नवनीत की उपपत्नी हो गई। कुछ दिन बाद नवनीत ने एक छोटे से कॉल सेंटर में मेरी नौकरी लगवा दी। शुरूआत करने को मेरे लिए मौक़ा अच्छा था। शुरू में काफ़ी दिक़्क़तें आईं लेकिन और चारा ही क्या था मेरे पास; जया को आत्मनिर्भर बनाने के साथ साथ अब मैं ख़ुद भी अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती थी। शुरू में जया को एक क्रेच में छोड़ा और फिर उसे डे-बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया क्योंकि मेरा ऑफ़िस भी था और नवनीत भी अक़्सर घर आता था। मैंने उस से कह दिया था कि जिस तरह वो नहीं चाहता कि इस सम्बन्ध के बारे में उसकी पत्नी और बच्चों को पता चले मैं भी नहीं चाहती कि जया को इस बारे में कुछ भी पता चले। 

“कॉल सेंटर में नौकरी करने से मेरे अंदर थोड़ी हिम्मत आई और मैंने एक नाइट कॉलेज में बी.कॉम. में दाख़िला ले लिया। घर में जया के लिए मैंने एक बड़ी उम्र की बाई रख ली। मैंने नौकरी भी की और पढ़ाई भी। बी.कॉम. पूरी हुई तो नवनीत ने कहा, ’जब तुमने इतना सफ़र तय कर ही लिया है तो थोड़ी मेहनत और कर लो, एमबीए कर लो।’ लेकिन मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं फ़ीस भर पाती। मैंने नवनीत को अपनी मजबूरी बता दी। उसने सुझाव दिया कि मैं उस से लोन समझकर पैसे ले लूँ लेकिन मैंने मना कर दिया। तब उसने मुझे सुझाया कि किसी कॉलेज में एडमिशन होने पर मुझे स्टूडेंट लोन मिल सकता था। ये बात मुझे पसंद आई और मैंने पार्ट टाइम एमबीए करने के लिए कॉलेजों में एप्लीकेशन फ़ॉर्म जमा कर दिए; कुछ दिन बाद एक एवरेज कॉलेज में मुझे दाख़िला मिल गया। मैंने इस अवसर को जाने नहीं दिया और मेहनत करने में जुट गई और तीन साल में एमबीए की डिग्री हासिल कर ली। मैंने नई नौकरी ढूँढ़नी शुरू की और कुछ पाँच महीने बाद मुझे एक कंपनी में जॉब मिली। क़रीब एक साल ट्रेनिंग के बाद मैं वहाँ पर्मानेंट हो गई। अब मेरी उम्र चौंतीस वर्ष है और ये नौकरी करते करते मुझे क़रीब साढ़े तीन साल हो गए हैं। जया अब चौदह साल की हो गई है, मेरे संघर्ष ने उसे समय से पहले ही बड़ा कर दिया है। बस किसी तरह आज तक ना जाने कैसे नवनीत के और मेरे रिश्ते की बात उस से और नवनीत के घरवालों से छुपी है लेकिन डरती हूँ कब तक छुपी रहेगी इसलिए साउथ में कहीं जॉब तलाश कर रही हूँ, जिस दिन भी मिल गई सब छोड़कर चली जाऊँगी और पीछे मुड़कर कभी नहीं देखूँगी। नवनीत को भी मैंने ये बात बता दी है। वो कहता है कि इतने सालों में उसे हमारी आदत हो गई है लेकिन वो भी चाहता है कि जया हमेशा उसे और मुझे अच्छे दोस्त ही समझती रहे और उसके बीवी बच्चों को भी कुछ पता ना चले इसलिए मेरे फ़ैसले से उसे कोई आपत्ति नहीं है।”

“तो ये थी मेरी कहानी अब बताइए क्या आप इसे लिखेंगी?” 

उसका ये प्रश्न अचानक ही मुझे भूत से भविष्य में ले आया। मैंने उसके हाथ पर अपना हाथ रखा और कहा, “मैं ज़रूर लिखूँगी। तुम्हारे फ़ैसले सही थे या ग़लत लेकिन तुम्हारी कहानी समुद्रतल में डूबने पर भी तैरकर ऊपर आने की प्रेरणा देती है। और हाँ मैं तुमसे घृणा नहीं करती ना ही तुम्हें जज करूँगी यू सी आई हैव नेवर बीन इन यॉर शूज़। लोग ज़रूर तरह-तरह की बातें करेंगे लेकिन अपने हर फ़ैसले के लिए तुम ख़ुद ज़िम्मेदार हो। सिर्फ़ एक बात जानना चाहती हूँ अनुज से फिर तुम्हारी कभी मुलाक़ात नहीं हुई या उसने कभी तुम दोनों से मिलने की कोशिश नहीं की और अकेला अनुज ही नहीं नवनीत भी तो तुम्हारा गुनहगार था तो क्या तुमने उसे माफ़़ कर दिया?”

“की ना, बहुत की। मैंने कभी अनुज को तलाक़ नहीं दिया और मरते दम तक नहीं देती क्योंकि अब मैं कभी किसी से शादी नहीं कर पाऊँगी, कभी किसी पुरुष पर आँख बंद करके भरोसा नहीं कर पाऊँगी तो वो कैसे घर बसा लेता लेकिन समय को कुछ और मंज़ूर था। क़रीब दो साल अनुज ने केस लड़ा और उन दो सालों में वो ख़ाली हो गया था, इतना ख़ाली कि खाने को रोटी नहीं थी, रहने को घर नहीं था। एक बार मुझे सड़क पर दिखा था बदहवास सा। फिर कुछ महीनों बाद पता चला उसने ट्रेन के आगे कूदकर आत्महत्या कर ली। शुरू में लगा जैसे मैं ही इसकी ज़िम्मेदार थी। लेकिन फिर समझ गई कि जो आदमी सिर्फ़ एक प्रमोशन के लिए अपनी पत्नी को बेच दे उसका यही हश्र होना चाहिए। जया तब तक इतनी छोटी थी कि उसे अनुज याद ही नहीं है। अभी तक तो मेरी ज़िंदगी मुश्किलों से भरी रही है शायद यहाँ से जाने के बाद आसान हो जाए। मैं अब सुकून से रहना चाहती हूँ, थक गई हूँ भागते-भागते और रही बात नवनीत की आपने वो कहावत सुनी ही होगी, ’जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो दूसरों को क्या दोष देना।’ अनुज को मैं उसके मरने के बाद भी माफ़ नहीं कर सकती क्योंकि वो मेरा पति था मैं उससे प्यार करती थी, उसपर भरोसा करती थी लेकिन नवनीत मेरा कौन था? कोई नहीं। उसने अपनी वासना मिटने के लिए मेरा इस्तेमाल किया तो मैंने भी तो वही किया, अनुज से बदला लेने को और जया का भविष्य उज्ज्वल करने को। मैं कौन सा उस से प्यार करती थी आज भी नहीं करती और कभी कर भी नहीं पाऊँगी। ना ही तो मैं अनुज के घर में रह सकती थी ना ही जया के साथ सड़क पर। ना भीख माँग के ख़ुद कुछ बन पाती ना जया को कुछ बना पाती और तो और क्या सड़क के आवारा लड़के मेरी बेटी को चैन से रहने देते? मैंने जो किया लोग सही कहें या ग़लत लेकिन मुझे अपने किसी फ़ैसले पर कोई अफ़सोस नहीं है।” उसका इतना कहना था कि हमारी फ़्लाइट की अनाउंसमेंट हो गई, “आपसे बात करके मन हल्का हो गया। ऐसा लगता है मानो सालों का बोझ दिल से उतर गया। थैंक यू। ये सफ़र हमेशा याद रहेगा।” इतना कहकर वो उठकर चली गई, मैं भी अपना सामान लेकर अपनी फ़्लाइट की तरफ़ चल दी। 

मैं जिस विवाह समारोह में शामिल होने गई थी उसमें भी मैंने भाग लिया लेकिन उसे भुला ना पाई और सोचती रही कि आगे बढ़ने की ये कैसी होड़ लगी है जिसमें आदमी एक दूसरे को सीढ़ी बनाकर, दूसरे के भरोसे को कुचलकर ऊपर चढ़ना चाहता है और क्या इसका अंत अनुज से कुछ अलग हो सकता है? आजकल भरोसा इतना सस्ता क्यों है कि क़ामयाबी के बाज़ार में उसकी कोई क़ीमत नहीं है? कितना मुश्किल होता है किसी का भरोसा जीतना और कितनी आसानी से हम उसे तोड़ देते हैं। काश हम समझ पाते कि इस प्रकार किसी को चोट पहुँचा कर हमारे नैतिक मूल्य किस तरह नीचे गिरते जा रहे हैं। 

मैं ये कहानी लिख रही हूँ इस आशा के साथ कि जब ये छपेगी तब वो भी कहीं इसे पढ़ेगी और ख़ुश होगी कि मैंने अपना वादा पूरा किया। 

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