वो कौन थी? 

01-04-2022

वो कौन थी? 

जितेन्द्र कुमार (अंक: 202, अप्रैल प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

बात उन दिनों की है, जब मैं हाईस्कूल का छात्र था। यूपी बोर्ड की परीक्षाएँ हो गई थीं। जून में नतीजे आने वाले थे। परीक्षा सकुशल संपन्न हो गई थी, अतः उस परीक्षा के तनाव से निकलकर मैं ननिहाल में गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने के लिए आ गया था। उन दिनों मेरी अधिकांश छुट्टियाँ ननिहाल में ही बीतती थीं। उस साल भी मैं ननिहाल में ही था। मई का महीना था। शादियों का त्योहारी 'सीज़न' भी चल रहा था। ऐसी ही एक शादी का निमंत्रण मेरे ननिहाल में भी आया। निमंत्रण मेरे मामा जी के ख़ास रिश्तेदारी का था इसलिए वहाँ जाना अत्यावश्यक था। 

मेरे मामाजी ने मुझे भी साथ चलने को कहा। मेरी ख़ुशी की सीमा न रही। नियत तिथि के दिन हम वहाँ पहुँचे। शाम को बारात जानी थी। मैं बारात में जाने के लिए बड़ी उत्सुक था लेकिन तभी किसी ने आकर बताया कि बारात ट्रैक्टर से जाने वाली है, फिर तो ऐसा लगा जैसे मेरे पाँव से धरती खिसक गई हो। ट्रैक्टर पर तो बहुत सी बारातों में जा चुका था, इस बार उम्मीदें जीप या बस की थीं लेकिन वह भी अब मेरे लिए आकाश-कुसुम था। 

अंततः ट्रैक्टर से न जाकर साइकिल से ही बारात में जाने का निश्चय हुआ। कुल चार साइकिलों पर आठ लोग जाने को तैयार थे, जिसमें एक साइकिल मामा जी की भी थी। बारात के गंतव्य स्थान पर निकलने के उपरांत ही हम लोग भी निकल पड़े। मैं मामाजी की साइकिल पर ही बैठा हुआ था। लगभग पाँच-सात किलोमीटर चलने के उपरांत एक पुलिया पर हम लोग थोड़ा आराम करने के उद्देश्य से रुके। मामाजी को छोड़कर बाक़ी सभी अधेड़ उम्र के ही थे। अतः उन्हीं लोगों के अनुसार ही चलना पड़ता था। उन सभी लोगों में सभी लोग रिश्ते में मामा-नाना ही लगते थे। वहीं बग़ल में 'ताड़ी' मिल रही थी, जिसका विक्रेता 'ताजी-ताड़ी, ताजी-ताड़ी' उच्चरित कर रहा था। चचेरे नाना ने ललचाए नेत्रों से उसकी ओर देखकर साइकिल उसी की मड़ई के सामने खड़ी कर दी। मामा जी तो तुनक ही पड़े क्योंकि वह जानते थे कि ये बिना 'पिए' नहीं चलेंगे। मेरे और मामा जी को छोड़कर सभी लोगों ने ख़ूब छककर ताड़ी पी। 

लगभग पैंतीस-चालीस मिनट पश्चात ही साइकिलें उठीं तब तक भगवान भास्कर ने अपनी किरणों को समेट लिया था। लगभग बीस-पच्चीस मिनट चलने के उपरांत अँधेरा होने लगा था। तभी किसी ने पूछा, “हम लोगों को किस गाँव जाना है?” सभी एक दूसरे साइकिल सवार से पूछ रहे थे। सबसे पीछे मेरे मामाजी की साइकिल थी। मामाजी ने मुझे बताया कि सब लोग गंतव्य स्थान का नाम ही भूल गए हैं। 

एक बार फिर से साइकिलें रुकीं लेकिन इस बार सबके होश फ़ाख़्ता थे। उन दिनों आज की तरह सबके पास मोबाइल फ़ोन नहीं हुआ करते थे कि तुरंत किसी से पूछा जा सके। मेरा तो जैसे दिल ही बैठा जा रहा था। सभी लोगों का 'नशा' अब टूट चुका था। बड़ी हैरानी से सब एक-दूसरे को उम्मीद भरी दृष्टि से ताक रहे थे। तभी उस चिंताग्रस्त युधिष्ठिर सभा में मैं अभिमन्यु की तरह खड़ा हुआ। 

मेरी एक अच्छी आदत जो अब भी बदस्तूर जारी है, वह यह कि मैं किसी निमंत्रण पत्र को बार-बार पढ़ता हूँ, ख़ास तौर से लड़का-लड़की का नाम और उनके गाँव को। यह आदत काम कर गई और तुरंत मुझे याद आया कि हमको 'डूम्मर-पोखर' जाना है। यह नाम मुझे इसलिए याद आ गया क्योंकि इस गाँव के विचित्र नाम को पढ़कर मैं कई बार हँसा था। बहुत सोचने पर भी यह ख़्याल न आ सका कि इस गाँव में किसके यहाँ जाना है? ख़ैर! कोई बात नहीं, बहुत बड़ी समस्या हल हो गई थी क्योंकि गाँव का नाम तो मालूम चल गया था। मेरे चचेरे नाना ने रोबीले मूछों को हिलाते हुए पूछा, “गाँव का नाम तो सही बताया है ना?” मैं डरते हुए लेकिन पूरे आत्मविश्वास से उत्तर दिया, “हाँ, 'डूम्मर-पोखर' ही जाना है।” 

सबकी जान में जान आई। अब सबकी साइकिल की रफ़्तार बढ़ गई, केवल इसलिए नहीं कि गाँव का नाम पता चल गया था बल्कि इसलिए भी कि घुप्प अँधेरा बढ़ता ही जा रहा था। बहुत दूर तक देखना सम्भव नहीं था। सामने से आते हुए एक साइकिल सवार से पूछा गया कि 'डूम्मर-पोखर' अभी कितनी दूर है? उसने बताया कि अभी दस-ग्यारह किमी और चलना होगा। 

हम तेज़ी से चले। अंदाज़न सात-आठ किलोमीटर चलने के उपरांत एक तिराहे पर बैठे लोगों से पूछा गया कि 'डूम्मर-पोखर' कितनी दूर है? उन लोगों में से एक ने बताया कि, “अरे! आप लोग आगे आ चुके हैं। लगभग तीन-चार सौ मीटर पीछे जो चौराहा था, उसी से दक्षिण वाले रास्ते को पकड़कर एक डेढ़ किमी चलने पर एक गाँव आएगा, वहीं किसी से पूछ लीजिएगा क्योंकि उस गाँव के बाद एक नदी भी पार करनी पड़ेगी। नदी के उस पार ही वह गाँव है। और हाँ इस एक-डेढ़ किलोमीटर सफ़र के बीच एक पुलिया है जहाँ से रास्ता थोड़ा मुड़ सा गया है। वहाँ पहुँचने पर आप लोग एक साथ हो लीजिएगा और कोई साइकिल रुकवाए तो मत रोकिएगा।” 

उस व्यक्ति के इस अंतिम वाक्य से मैं तो बिल्कुल डर ही गया था कि आगे ऐसा क्या होगा जिसके लिए यह हम सबको सचेत कर रहा है। ख़ैर! आठ लोगों की संख्या होने का भान आने पर मन की दुविधा दूर हुई और हम उसके बताए अनुसार चौराहे से दक्षिण तरफ़ वाला रास्ता पकड़ कर चलने लगे। 

एक-डेढ़ किलोमीटर चलने के बाद वह पुलिया आ ही गई जहाँ दूर से ही दो-तीन लोगों के होने का धुँधलका प्रतीत हो रहा था। पास पहुँचने पर उनमें से एक ने बीच में आकर मूँछ वाले नानाजी को रोकना चाहा लेकिन उनकी लंबाई-चौड़ाई और मूछों को देखकर उसकी हिम्मत न हुई। बाक़ी लोग भी उन्हीं के पीछे-पीछे और साथ ही चल रहे थे। जब मेरी साइकिल उन सबके बग़ल से गुज़री तो मैंने उस आदमी के चेहरे को देखने की नाकाम कोशिश की क्योंकि अँधेरे ने उसकी पहचान छिपा रखी थी। ख़ैर, हम उस पुलिया को पार कर कुछ देर तक चलने के उपरांत उस गाँव में पहुँचे। गाँव के बाहर ही दो-तीन बूढ़े लोग एक मड़ई के बाहर सड़क से सटे हुए ख़ाली ज़मीन पर चारपाई पर बैठे हुए मिले। सभी साइकिलें वही जाकर रुकीं। बूढ़ों ने पूछा कि भैय्या! आप लोग कैसे सकुशल आ गए? क्या किसी ने आपका रास्ता नहीं रोका? नाना जी ने पुलिया पर की बात बताई तो उन्होंने कहा कि इतनी रात को इस रास्ते से कोई नहीं आता क्योंकि आए दिन वहाँ छिनैती और लूटपाट होती रहती है। आप लोग ख़ुशक़िस्मत हैं जो सकुशल बच आये या हो सकता है कि ठीक-ठाक संख्या देखकर ही वे शायद आप सबको कुछ न बोले हों। जो हुआ अच्छा ही हुआ। 

दूसरे नानाजी जो अब तक पूरे रास्ते शांत ही थे, शायद 'ताड़ी' का प्रभाव रहा हो, बोले, ”हम सभी को 'डूम्मर-पोखर' जाना है। रास्ता बताएँ।” 

एक बूढ़े ने बताया अब आप लोग नज़दीक ही आ गए हैं, तभी मैंने तुरंत सोचा कि हर बिहारी से किसी गाँव का पता पूछने पर यही कहता है कि 'भीरियऽ त हवऽ' चाहे वह भले ही चार-पाँच किमी हो। हमलोग 'भीरियऽ' का मतलब कम से कम एक किलोमीटर तो समझ ही लेते हैं। तभी दूसरे बूढ़े ने कहा कि इसी गाँव के बीचों-बीच से एक रास्ता सीधे दक्षिण की तरफ़ गया है, वही सीधे नदी पर ले जाएगा। उस रास्ते से नदी पर जाकर ठीक बीस क़दम पूर्व दिशा में चलकर नीचे नदी की ओर उतर जाइएगा। दो तीन क़दम पहले ही मत उतरिएगा नहीं तो वहाँ से पानी ज़्यादा गहरा मिलेगा। इस बीस क़दम वाली बात को मैंने ठीक से याद कर लिया क्योंकि मुझे अब उन लोगों की याददाश्त पर भरोसा न था। रात भी बढ़ती जा रही थी। वहाँ पर बूढ़ों का आभार मानकर तीन-चार सौ मीटर चलने के उपरांत सच में गाँव के बीच से दक्षिण दिशा की ओर एक पतला सा रास्ता गया हुआ था। उसी को पकड़कर हम सब गाँव से बाहर आ गए। गाँव से बाहर आते ही उसी रास्ते पर एक नीम का पेड़ मिला, जिसकी छाया पूरी तरह से उस पतले कच्चे रास्ते को आवृत्त कर रही थी। उस पेड़ के पास ही एक धुँधली परछाईं हम सभी ने सौ मीटर पहले ही अनुभूत कर ली थी। चूँकि हम सब साइकिल से चल रहे थे इसलिए जल्दी ही वहाँ उस पेड़ के पास पहुँच गए। पास आने पर देखा एक पन्द्रह-सोलह वर्षीया लड़की है, जो नदी की ओर ही जा रही थी। उसके पास पहुँचने पर नाना जी ने साइकिल रोककर शायद बूढ़ों के बताए रास्तों के 'कन्फ़र्मेशन' के लिए उससे पूछा, “बिटिया हम सभी को 'डूम्मर-पोखर' जाना है। क्या यह रास्ता उधर ही जाएगा?” 

उस लड़की ने कहा, “हाँ, मैं भी उसी गाँव में जा रही हूँ।” हम सबको अब एक साथी मिल गया था और हमें अब अपनी मंज़िल नज़दीक नज़र आने लगी थी। मैंने सोचा कि शायद यह लड़की आस-पड़ोस की ही है तभी तो रात को निर्भीक जा रही है। ख़ैर! अब हम सब उसके पीछे-पीछे पैदल ही चलने लगे। थोड़ी दूर चलने के उपरांत हम नदी के किनारे पर पहुँच गए। वहाँ पहुँचकर लड़की ने सचमुच बीस क़दम चले और वहाँ से नीचे नदी में उतरने लगी। मैंने उन बूढ़ों की बात याद कर ली थी इसलिए जब मैं भी आश्वस्त हो गया कि यह बीस क़दम ही चली है, तो बड़ा संतोष का अनुभव हुआ। 

नदी में पानी टखने से थोड़ा सा ऊपर था। नदी की बीच धारा में पहुँचने पर लड़की ने बताया कि यदि तीन-चार क़दम पहले ही उतरते तो पानी घुटने से भी ज़्यादा मिलता। बीस क़दम के बाद उतरने पर पानी ऐसे ही बमुश्किल टखने को छूता है। गर्मी के मौसम में लोग इसी प्रकार ही जाते हैं क्योंकि नदी सूखने लगती है। बातों ही बातों में हम नदी पार कर चुके थे। मेरा यह नदी पार करने का पहला अनुभव था। नदी पार कर जब हम उसके पुलिन पर पहुँचे तो सामने ही वह गाँव दिखा और दो-तीन ट्यूबलाइटें जलती दिखाई देने लगीं। 

अब सबकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। अब हम अपनी मंज़िल से बस पाँच-छः सौ मीटर की दूरी पर थे। 'बताड़ (तीन-चार फीट का कच्चा रास्ता)' से होते हुए हम अब गाँव से लगभग सौ मीटर की दूरी पर थे, तभी उस लड़की ने कहा कि आप लोग वहाँ उस ट्यूबलाइट के पास चले जाइए। शायद वही बारात आप लोगों की है। मुझे गाँव में जाना है। सभी लोग एकदम ट्यूबलाइट की दिशा में ही बढ़ते जा रहे थे लेकिन मेरी निगाहें उस जाती हुई लड़की को देख रही थीं जो अचानक थोड़ी देर बाद आगे जाकर ग़ायब ही हो गयी। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि सबसे पीछे मैं ही चल रहा था और उसे अंत तक जाते हुए देख भी रहा था। 

बारात के पास आने पर मालूम हुआ कि यह ट्यूबलाइट उन लोगों की बारात की नहीं है। गाँव में आज दो लड़कियों की शादी है। शायद दूसरे वाले के पास हम सबको जाना है क्योंकि वहाँ उस बारात में कोई भी अपना परिचित नहीं दिख रहा था। अब यह एक नई मुसीबत आ गयी थी। ख़ैर! यह मुसीबत ज़्यादा बड़ी नहीं थी क्योंकि वहाँ से थोड़ी ही दूरी पर पूर्व दिशा में एक और लाइट दिखाई दे गयी। निस्संदेह वह हम सब की बारात है, ऐसा सोचकर हम सीधे ख़ाली पड़े खेतों में से ही होते हुए उधर बढ़े। पास पहुँचते ही सभी परिचितों के चेहरे नज़र आने लगे। हम सबके जान में जान आयी। मैंने तुरंत अपने छोटे नानाजी से पूछा जो कि बारात के साथ ही ट्रैक्टर से आये थे, कि आप लोग नदी कैसे पार किये? क्योंकि वहाँ तो ट्रैक्टर आने की कोई जगह या रास्ता ही नहीं था, तो उन्होंने बताया कि तुम लोग 'शॉर्टकट' वाले रास्ते से आये हो और हम लोग काफ़ी आगे से, जहाँ नदी पर पुल बना हुआ है, से आये हैं। यहाँ से इसकी दूरी आधी रह जाती है। मेरी जिज्ञासा शान्त हुई। 

रात बीती, अगले दिन सुबह हम भी उसी रास्ते जिससे कि रात को आए थे, से चले। नदी के कगार पर पहुँचकर हम उस लड़की के बताए अनुसार ही नदी पार करके उसी नीम के पेड़ के पास पहुँचे। वहाँ पहुँच कर मुझे फिर उस लड़की का स्मरण हो आया। तब से लेकर आज तक अभी भी मैं सोचता रहता हूँ कि आख़िर वो कौन थी? कोई देवी? या फिर . . . ? 

2 टिप्पणियाँ

  • 30 Mar, 2022 10:07 PM

    Very interesting story sir. पहले जमाने की बारात का मजा ही कुछ और था। और तो और बचपन में अगर बारात में जाने का अवसर मिल जाए तो , भगवान कसम बच्चा स्वर्ग भी छोड़कर बारात में शामिल होने के लिए उसकी पहली इच्छा होगी।।। बहुत ही सुंदर कहानी लगी आपकी, आप ऐसे ही अच्छे अच्छे कहानी ,कविता आदि लाइए, जिससे हम श्रोतागण का दिल झूम उठे और मन में आनंद और शांति का आभास हो।। । धन्यवाद।

  • 30 Mar, 2022 11:01 AM

    Very nice real story

कृपया टिप्पणी दें