क्योंकि मैं वरिष्ठ हूँ
जितेन्द्र कुमारनहीं है कोई संवेदना मेरे पास
फिर भी अभीष्ट हूँ,
क्योंकि मैं वरिष्ठ हूँ।
स्वभाव से थोड़ा गरिष्ठ हूँ,
फिर भी वरिष्ठ हूँ।
अभी कल ही की बात है . . .
घटना घटी एक कनिष्ठ के साथ,
नहीं था उस वक़्त कोई उसके पास।
वह कोई मामूली सड़क नहीं थी, था बाईपास।
किसी सिरफिरे चालक ने दिया था धक्का पीछे से,
छटपटाता हुआ उठा वह बेचारा नीचे से।
किया फोन उसने कर्मस्थल पर . . .
था पसरा सन्नाटा घटनास्थल पर।
लगी पहुँचने लगातार संवेदनाएँ,
मैंने सोचा कि कहीं मेरे पास न कोई आए,
और कहीं मुझे अपनी गाड़ी न भेजनी पड़ जाए।
सभी साथी सुन हाल, थे स्तब्ध . . .
और मैं? इसी सोच में था कि—
मुझे ही न जाना पड़ जाए।
क्योंकि मैं ही वरिष्ठ हूँ।
उलझन-ओ-संवेदन के साथ चल पड़े दो-तीन साथी।
और मैं? . . . करता रहा फ़ालतू बात ही।
होने लगा समुचित वहाँ इलाज,
और इधर? शुरू हो गई मेरे मुँह की खाज।
आख़िर मैं ही तो वरिष्ठ हूँ।
इतने लोग गए क्यों वहाँ?
पढ़ाएगा फिर कौन यहाँ?
क्योंकि मैं तो पढ़ाता नहीं साहब, केवल बुदबुदाता हूँ।
और 'स्वयंभू ऑलराउंडर' कहलाता हूँ।
बजाय हाल पूछने के मैं इसमें मशग़ूल था कि—
“इतने लोग गए क्यों वहाँ?
ख़ैर! ईशकृपा से स्वस्थ हुआ वह कनिष्ठ,
और इधर . . . बनता रहा मैं वरिष्ठ।
आख़िर मैं सचमुच स्वभाव से थोड़ा गरिष्ठ हूँ।
नहीं है कोई संवेदना मेरे पास,
फिर भी वरिष्ठ हूँ।
क्योंकि . . . क्योंकि मैं वरिष्ठ हूँ।