बनाता रहा मेड़ें

15-06-2024

बनाता रहा मेड़ें

जितेन्द्र कुमार (अंक: 255, जून द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

लिए फावड़े कृषक खेत में तड़के ही आया, 
फ़सल की भावी हरीतिमा, थी कर रही उल्लसित उसको
इस बार अदा कर दूँगा लाला का क़र्ज़, सोचते ही हर्षाया। 
 
बाल सूर्य चढ़ने लगा ऊपर और ऊपर, 
लेकिन वह खोदता रहा मिट्टी भू की, 
बनाता रहा मेड़ें धरती जो थी ऊसर। 
करता रहा चोट फावड़े की, था पसीने से तरबतर। 
हो तृषित औ श्रान्त वह देखने लगा इधर-उधर। 
 
मंदिर का कूप था नज़र आया, 
लेकिन दूरी देखकर जी थर्राया। 
सूखती थूक को फिर से घोंटकर, 
मलिन अँगोछे से मुँह को पोंछकर, 
वह लगा रहा अपने कर्म में सबसे बेख़बर। 
अब क्षुधा भी थी कचोटती उसको औ रवि था उसके ऊपर। 
 
थीं चार मेड़ें और शेष बनानी उसको, 
क्या करे वह? खाये? अथवा मेड़ें बनाये? 
कल भी बन जायेंगीं ये मेड़ें, उसके क्लांत मन ने कहा
लेकिन . . . 
तब तक सूख जायेंगे ये धान के बेहन। 
 . . . और वह फिर से बनाता रहा मेड़ें। 

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