विकसित भारत की दिवाली—नई सोच के साथ

01-11-2025

विकसित भारत की दिवाली—नई सोच के साथ

अभिषेक मिश्रा (अंक: 287, नवम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

न मैं दिवाली मनाता, न ये धूम धड़ाम मुझे भाता है, 
मेरा मन तो उस कर्ज़ को गिनता, जो ग़रीब चुकाता है। 
न ये मेरा उत्सव है, न आतिशबाज़ी का शृंगार, 
मैं तो देखता हूँ, धन की चिता पर, चढ़ता बाज़ार। 
जिस लक्ष्मी को घर बुलाने, लाखों का व्यापार हुआ, 
चंद मिनटों की आतिशबाज़ी में, उसका सर्वनाश हुआ। 
 
जिस पूँजी से सँवर सकता, किसी का पूरा संसार, 
तुम उसी को धूल बनाते, ये कैसा अंध-अधिकार? 
पूँजी का यह प्रदर्शन, यह कैसा व्यंग्य रचता है? 
जब फ़ुटपाथ पर बैठा मानव, आज भी अन्न को तरसता है। 
दीवारों के भीतर दीप जले, पर द्वार अँधेरा बोल रहा, 
पत्थर की मूरत के लिए, तू लक्ष्मी को ही तोल रहा। 
 
लाखों के रॉकेट से ऊँचा, वह ग़रीब का घर भी हो, 
जो इस आस में बैठा है, कि ‘आज वह भी ख़ुश हो।’
हज़ार जलाओ तुम दीप भवन में, पर एक दीया क्यों नहीं? 
जहाँ भूख से सूख गए हों होंठ, वहाँ उत्सव क्यों नहीं? 
उन अँधेरे कोनों में, जिनका जीवन ही एक अँधेरा है, 
उनकी ख़ुशी में शामिल हो, यही नया सवेरा है। 
 
मत ढूँढ़ो लक्ष्मी को मंदिर में, न ही महँगी पूजा थाली में, 
लक्ष्मी का सच्चा वास है, हर ज़रूरतमंद की दीवाली में। 
जब तुम्हारी दान की ज्योत से, उनका घर भी झिलमिल होगा, 
तब पत्थर का देव नहीं, इंसान रूपी मानव कृतार्थ होगा। 
गरम कपड़ों की पोटली में, जब ठिठुरती काया लिपट जाए, 
समझो! स्वयं लक्ष्मी के, तुम्हारे घर में क़दम धर जाए। 
 
यह पगलापन नहीं तो क्या है? यह आत्मघाती कैसी ख़ुशी? 
जिस धन से घर सँवरते थे, वो ख़ाक हुआ, ये कैसी रस्म हुई? 
आओ! आज ही तुम हिसाब करो, उन हज़ारों की बर्बादी का, 
जो शोर बनकर उड़ गया, वो हिस्सा था किसी ग़रीब की आज़ादी का। 
 
उसे लक्ष्मी की मूर्ति नहीं, लक्ष्मी से ख़रीदी हुई, 
रोटी चाहिए, कंबल चाहिए, एक आशा चाहिए। 
तुम्हारा लाखों का पटाखा, उसकी साँस को छीन रहा है, 
और तुम्हारा बचाया हुआ पैसा, उसे ज़िंदगी दे रहा है। 
 
देखो! एक ओर लक्ष्मी-गणेश की पूजा का ठाट है, 
दूजी ओर पर्यावरण पर, ज़हरीली बारूद की मार है। 
जिस हवा में साँस लेते, उसे ही दूषित करते हो, 
जिस ‘विकसित भारत’ का स्वप्न है, उसे ही तो व्यथित करते हो! 
ये पटाखे नहीं, ये पाप है, जो भविष्य पर मढ़ते हो, 
जिस धन से ज्ञान बिकेगा, उसे यूँ ही क्यूँ बिगाड़ते हो? 
 
मेरा मानना है: उसी लाखों में से चंद पैसे बचाकर, 
उन ज़रूरतमंदों की ख़ुशी बन जाना बेहतर है आज। 
सोचो! तुम्हारा बचा हुआ पैसा, क्या नहीं कर सकता? 
किसी ज़रूरतमंद की तो, भूख का घाव भर सकता। 
उसी धन से तुम बन सकते, किसी के जीवन के राम। 
 
इसलिए त्याग दो ये मदहोशी, ये बाज़ार की चालाकी को, 
जागो! ये विकसित भारत है, अब जीतो अपनी ख़ाकी को। 
वो पटाखे नहीं, वो अर्थ का संहार था, जिसके हम गवाह बने, 
अब उसी धन से हम ‘दीवाली’ को, मानवता का ‘राह’ बनें। 
नया सोच यही है: दीप जले उस घर में, जहाँ प्रकाश की चाहत है, 
यही सच्ची लक्ष्मी पूजा है, यही सबसे बड़ी इबादत है। 
 
यह पर्व आत्मा का हो, न कि आडंबर का, 
यही तुम्हारा दायित्व है, इस सुंदर अम्बर का। 
यही नया संकल्प हो, यही सीधा संदेश जाए, 
तुम्हारा उपकार देख, हर ग़रीब का दिल मुस्कुराए। 

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