एक वर्दी, हज़ार कहानियाँ
अभिषेक मिश्रा
कहीं सीमा पर बर्फ़ पिघली, कहीं आँखों में नमी थी,
कहीं माँ की चिट्ठी आयी, तो कहीं गूँजी शहनाई थी।
पर एक वर्दी सब पर भारी— वो धर्म, कर्म, क़ुर्बानी है,
हर धड़कन में देश बसा हो— वही तो असली कहानी है।
कविता नहीं, ये आत्मा है— हर सिपाही की ज़ुबानी,
आओ सुनें वो गाथा, जो गूँजती है हर वीर की निशानी।
वो एक वर्दी . . . नाज़ है हमको, मान है, अभिमान है,
उसमें लिपटी सिर्फ़ देह नहीं— भारत का अरमान है।
ना वो रेशम है, ना कातन— ना कोई सुनहरी थानी,
उसमें दर्ज़ हैं रक्त-बिंदु और माटी की स्याही पुरानी।
हर सिलवट पर वीर गाथाएँ, हर धागे में बलिदानी,
सच कहूँ तो— वो एक नहीं, हज़ारों की ज़ुबानी।
कभी माँ की गोद छोड़ आया, कभी बहन की राखी भूला,
कभी मेहँदी सूख गई उँगली पर, कभी सिन्दूर ही धुला।
हँसते-हँसते छाती चीर गया, सीने में गोली खाई,
पर वर्दी पर आँच न आए— बस यही क़सम निभाई।
कहीं बच्चे रोते सोते हैं, कहीं पत्र अधूरी कहानी,
और दुनिया समझे वर्दी बस— पर छुपी है उसमें क़ुर्बानी।
वो वर्दी जिसमें गर्मी झेली, बारिश झेली, ठंडी झेली,
सियाचिन की बर्फ़ से लड़ता— आँखों में सपने मेली।
ना कोई रविवार होता, ना त्योहार का कोई नाम,
बस एक तिरंगा होता— और “जय हिंद” का पैग़ाम।
ना मिलती थाली गरम कभी, ना बिछती पलंग सुहानी,
फिर भी उठता सीना ताने— वो सैनिक की जवानी।
हर बटालियन की शान बनी, हर रेजिमेंट का गौरव है,
उस एक वर्दी के आगे तो— सिंहासन भी दुर्बल है।
कभी कंधे पर गंगा उठाई, कभी आँखों में झेलम लाया,
कभी मौत को मुस्कान दी, कभी ख़ुद को राख बनाया।
सोचो— जो पहन ले वर्दी, उसकी क्या होगी कहानी,
एक नहीं, हज़ार हृदय हैं— हर एक में इक रवानी।
तो जब भी देखो एक वर्दी— झुकना सीखो विनय से,
उसमें छुपे हैं जनगण के गीत, और स्वदेश की दुआएँ जैसे।
कभी ग़ौर से देखो आँखों में— कुछ टूटी तस्वीरें होगी,
कभी वर्दी की सलवट में— माँ की गुमसुम सी पीरें होगी।
वो वर्दी है, कोई वस्त्र नहीं— वो इतिहास की निशानी,
जो ख़ुद मिटे, और देश रचे— वो वर्दी की कहानी।