दिल और दिमाग़ की अधूरी अदालत
अभिषेक मिश्रा
हर रोज़ मेरे भीतर
एक अदालत लगती है।
जज भी मैं ही हूँ,
मुजरिम भी मैं ही,
और गवाह भी—
मेरा दिल और मेरा दिमाग़़।
दिल खड़ा होकर कहता है—
“हुज़ूर, इंसान सिर्फ़ साँस लेने से ज़िंदा नहीं होता,
ज़िंदा होने का सबूत है
उसकी धड़कनों की गवाही।
प्यार करना, हँसना, रोना—
यही असली ज़िंदगी है।
अगर दिल न हो,
तो इंसान चलता-फिरता शव बन जाएगा।”
दिमाग़ कुर्सी खींचकर मुस्कुराता है—
“हुज़ूर, ये मोहब्बत, ये ख़्वाब, ये जज़्बात—
किताबों में अच्छे लगते हैं।
ज़िंदगी हक़ीक़त है,
यहाँ फ़ैसले दिमाग़ से ही चलते हैं।
दिल की सुनकर चलोगे,
तो मंज़िल से पहले बिखर जाओगे।
दुनिया क़ब्रिस्तान है उन लोगों की,
जिन्होंने सोचने से पहले महसूस किया।”
दिल ने पलटकर कहा—
“अगर हर बात तौलने लगो,
तो ज़िंदगी तराज़ू रह जाएगी।
कभी कुछ पागलपन भी ज़रूरी है,
कभी बिना सोचे मुस्कुरा लेना भी।
तेरी गिनती में सुकून नहीं मिलता,
मेरे बहकाव में जीने का मज़ा है।”
दिमाग़ हँस पड़ा—
“पागलपन?
तेरे पागलपन ने कितनों को रुलाया है!
कभी अधूरे इश्क़ में,
कभी अधूरे सपनों में।
अगर मैं न होता,
तो तू हर रोज़ डूब जाता।
मैं ही तो हूँ जो तेरे सपनों को
हक़ीक़त की ज़मीन पर खड़ा करता हूँ।”
दिल आहत हो गया,
आँखें नम कर बोला—
“और अगर मैं न होता,
तो तेरी जीत भी ख़ाली होती।
तेरी सोच बेजान,
तेरे सपने बिन रंग के।
तेरे रास्ते सूने,
तेरी मंज़िलें वीरान।
मैं ही तो हूँ जो इंसान को
पत्थर से दिलवाला बनाता हूँ।”
कुछ पल ख़ामोशी रही . . .
मानो अदालत में घड़ी की सूइयाँ भी रुक गई हों।
फिर दोनों मेरी ओर देखने लगे।
मैं उलझन में था—
क्योंकि सच यही है—
जो दिल से चाहता हूँ, वो पूरा नहीं होता,
जो दिमाग़ से करता हूँ, उसमें दिल नहीं लगता।
उस रात अदालत भंग हो गई,
कोई फ़ैसला न निकला।
पर एक समझौता लिख लिया गया—
“रास्ता दिमाग़ दिखाएगा,
मंज़िल दिल तय करेगा।”
और मैं . . .
अब भी उस अधूरी अदालत का
सिर्फ़ गवाह बना बैठा हूँ।