वरदान क्या माँगूँ
डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ’अरुण’वरदान क्या माँगूँ तुम्हें पाकर भला मैं,
मिल गए तुम, पा गया वरदान जैसे!
यह जगत नश्वर,मिटेगा है सुनिश्चित,
प्रीत का संसार बोलो क्या मिटेगा?
काल की गोदी में सब सो जायेंगे,
नेह लेकिन इस धरा पर ही टिकेगा!!
है भरोसा देह तो यह जायेगी एक दिन,
क्यों करूँ संताप अब नादान जैसे!
चाहता हूँ मैं बटोरूँ अक्षरों को,
कीर्ति मेरी भी जगत में हो अनश्वर !
प्रीत का संसार रचना चाहता हूँ,
अक्षरों में नित रहे बन प्रीत अक्षर!!
ज़िन्दगी कब तक भला यह साथ देगी,
छोड़नी होगी हरेक सामान जैसे !
मन- गगन के छोर विस्तृत हो गए हैं,
कल्पना-चिड़िया उड़ी फिरती सलोनी !
बाँध कर मुट्ठी में रख लूँ मैं गगन,
फिर भले हो जाए जो होनी है होनी!!
उस पार जब जाऊँ तो मेरे साथ हो,
शब्द की पूँजी अमिट वरदान जैसे!!