उसमें सब कुछ था
संजीव बख्शीआकंठ विशेष कवि के रुप में
सफेद से कुछ ही दूरी पर
पीला रहता था
पौ फटने और सूर्योदय के बीच का फासला था
नीला और काला पीछे की लाईन में
रात की दूरी में रहते थे
न सफेद कोई रंग था न नीला
रंग तो ये बहुत बाद में हुए
ये रहते थे
जैसे और सब रहते थे
जैसे हरा रहता था पेड़-पौधों में घर बनाकर
जैसे पारदर्शी था सर्वव्यापी
जैसे आवाज का उत्पन्न होना
उसका रहना था
ब्रह्मांड के आँगन में था सब कुछ
पृथ्वी की गति थी पहाड़ पेड़ की गति
यही था उनका चलना-फिरना
मौसम था, इंद्रधनुष था,
बिना लिखी कविताएँ थी,
अपने आप कहानियाँ थी
और अपने आप जो हो सकता था
वह सब कुछ था
अंधेरे के मायने सोना था
उजाले के जाग जाना
फूलों की भाषा खुशबू थी
क्लोरोफिल था पत्तियों की मुस्कान
कुछ नहीं के बाद का संसार था
उसमें सब कुछ था ।