सपने

अशोक गुप्ता (अंक: 244, जनवरी प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

एक . . . 
 
बच्चे
गंदे चेहरे उलझे रूखे बाल
मैले फटे कपड़े
पुरजोश गा रहे हैं
जन गण मन
विडम्बना
एक दूसरा ब्रह्माण्ड
गहराती हुई खाई 
मैं चिल्ला रहा हूँ
हाथ बढ़ाए
 
कूदो कूदो! 
 
दो . . . 
 
बुलडोज़र की भारी
गड़गड़ाहट
झोंपड़ियाँ बरतन खिलौने
और सपने टूटेंगे
 
बनेगी 
एल्युमीनियम काँच सीमेंट
और ख़ून से
गगनचुम्बी इमारत
 
हम गर्व से 
आकाश की तरफ़ 
मुट्ठी तान के
चिल्लाते हैं
 
“जीडीपी जीडीपी!” 

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