रात

अशोक गुप्ता (अंक: 244, जनवरी प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

जब तक हो सके
जागता रहता हूँ
अक़्सर रात 
एक दो बजे तक
 
फिर कई बार
नींद खुलती है
तो आँख बंद किये
अलेक्सा से समय पूछता हूँ
 
हर बार सोचता हूँ
कि सुबह हो गई होगी
लेकिन ऐसा कम ही होता है 
 
अधीर
बीच रात ही
जाग के उठ जाता हूँ
 
और जीने लगता हूँ
एक और दिन

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