चीं, भैया चीं!
अशोक गुप्ता
आज फिर जून की चिलचिलाती धूप
में चलते थक गया हूँ
आज फिर कुछ नहीं बेचा, कुछ नहीं मिला
जी चाहता है बग़ीचे की बैंच पर
कुछ देर सो जाऊँ
पर नहीं
अभी बहुत दूर चलना है
बचपन की याद आती है,
बड़ा भाई मेरा हाथ मरोड़े
मेरी गर्दन अपनी भिच्ची में लेकर
दबाता है
बोल चीं, बोल चीं
मैं दुबला पतला, भैया से सात साल छोटा
नहीं बोलूँगा, नहीं, कभी नहीं
साँस घुटने को होती, तो भी नहीं
नहीं, कभी नहीं
पोटली अपने कंधे पर एक बार फिर
खिसकाकर जमाता हूँ
और कहना चाहता हूँ—कभी नहीं
पर मुँह से निकलता है
चीं, भैया चीं।