रिश्ते की भीख
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
मैं सुबह रोज़ की तरह स्टेशन पर पहुँचकर डेली पैसेंजर की तरह अपनी रेलगाड़ी की प्रतीक्षा कर रहा था। नौकरी के लिए काम पर जाने के लिए रेल से अच्छा साधन नहीं था।
स्टेशन पर ज़मीन पर दीवार की टेक लगाये अपने बच्चे के साथ एक युवती प्लास्टिक की प्लेट में भीख माँग रही थी, मैं भी वहाँ खड़ा होकर तमाशबीन की तरह अपने फ़ोन पर लगा था।
भीख माँगने वाली युवती ने अपने रोते बच्चे को चुप कराते हुए मुझसे कहा, “बाबू जी ज़रा मुन्ने को देखना मैं इसके लिये पानी लेकर आती हूँ,” उसने यह कहकर, भीख की प्लेट मेरे सामने रखकर, एक डिब्बे पर मुझे बैठने को कहा।
मैं अपने फोन पर व्यस्त था पर उसके कहने पर वहाँ डिब्बे पर बैठकर बच्चे को अपना पेन बच्चे को खेलने के लिये दे दिया और फोन पर लग गया। तभी अचानक कोई मेरे सामने आकर कोई खड़ा हो गया और उसने दो -तीन सिक्के के प्लेट में फेंके जो खनखनाये, अपना सिर उठाकर देखा कि मेरी मंगेतर भीख देकर अपनी सहेलियों के साथ खड़ी थी।
मेरा माथा चकराया, जब तक सब कुछ समझ पाता वह यह कहकर पाँव पटकते चली गई, “मुझे नहीं पता था कि तुम भीख भी माँगते हो।”
मैंने उसे रोका, “सुनो डार्लिंग, मेरी बात तो सुनो . . .” मैं उसके पीछे भागने को हुआ, पर भिखारी युवती दूर तक न दिखी और बच्चे को छोड़कर कैसे जाऊँ बच्चे का ख़्याल आते ही उसकी करुणा में रुक गया। तभी रेल आयी मैं कश्मकश में था की भागकर अपनी मंगेतर के साथ रेल पर चढ़ जाऊँ। पर रेल छूट चुकी थी, मानो मेरे होने वाले रिश्ते की रेल मेरे सीने से गुज़र गयी और मेरी नज़र उसके प्लेट में भीख में दिये सिक्के ऐसे लग रहे थे जैसे मेरी मंगेतर रिश्ते की भीख देकर चली गई हो।