पटरियाँ
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'न्यूआर्क, न्यू जर्सी का महत्वपूर्ण हवाई अड्डा है। नाम को लेकर बहुत से लोग धोखा खा जाते हैं। लोग पहली बार अमरीका के दोनों हवाई अड्डों न्यू आर्क और न्यू यार्क में ज्यादा अन्तर नहीं कर पाते क्योंकि दोनों के उच्चारण में बहुत समानता है। यहाँ बहुत चहल पहल है। यात्रियों का आवागमन लगा हुआ है। सभी अपने अपने सामान का बोझ उठाये चले जा रहे हैं। आज चाँदनी अकेले है। जब चाँदनी पहली बार अमेरिका आयी थी तब वह अपने पति आनन्द के साथ आयी थी। आज उसे विदाई देने कोई नहीं आया। उसका बेटा मनु भी नहीं क्योंकि वह वाशिंगटन में पढ़ाई कर रहा है। उसकी परीक्षायें होने वाली हैं। एक मनु ही तो है जिसके लिए वह जी रही है। उसके मन में अतीत की स्मृतियों की गाँठे एक-एक करके खुलने लगी थीं। जब मनु दो साल का हो गया तब उसे ज्ञात हुआ कि आनन्द पहले ही एक अमेरिकी औरत के साथ रह रहा था। बहुत प्रयत्नों के बाद वह अपने पति को न सुधार सकी। आनन्द नहीं चाहता था कि चाँदनी काम करे या आगे पढ़ाई करे।
उसे गाँव में दूधवाले और उसकी दो पत्नियों की याद आ गयी। उसकी दोनों पत्नियाँ आपस में लड़ती, गाली गलौज करतीं, अपने पति लाखन से पिटतीं। कुछ देर रो धोकर आपस में काम-धाम करने लग जातीं। चाँदनी को तब यह सब कुछ सामान्य लगा था, परन्तु जब अपने ऊपर आ पड़ी तब उसे आटे-दाल का भाव पता चला।
चाँदनी का मानना है कि एक म्यान में दो तलवारें तो रह सकती हैं पर एक साथ दो पत्नियाँ नहीं रह सकती। यह तो सरासर अत्याचार है। धोखा है। चाँदनी अपने आप बुदबुदाती है- ‘मर्द की यह कैसी नामर्दगी है कि वह विवाह के समय तो शपथ खाता है समानता और प्रेम से साथ जीवन बिताने और निभाने की, और अपनी हवस मिटाने के लिए कैसे पशु बन जाता है।’
उसे भली भाँति याद है जब वह अपने बच्चे को हेल्थसेन्टर पर जाँच कराने गयी और वहाँ एक हमउम्र महिला डाक्टर से मुलाकात हो गयी। जब महिला डाक्टर ने खराब स्वास्थ्य और बच्चे को पिलाने के लिए अपना दूध न निकलने की समस्या पर चर्चा की तो वह अपनी पीड़ा न रोक सकी थी और फफक कर रो पड़ी थी। चाँदनी को डॉक्टर के रूप में मानो एक फरिश्ता मिल गया हो। उसने चाँदनी को सप्ताह में दो दिन के लिए अपनी क्लीनिक पर बुलाना शुरू किया।
जब उसके पति आनन्द ने चाँदनी पर हाथ उठाया तब उससे न रहा गया और वह डाक्टर की सहायता से ‘क्राइसिस सेन्टर’ चली आयी थी। उसे पता है कि कैसे उसने अपने बेटे को पाल पोस कर बड़ा किया। कभी-कभी वह अपने माता पिता को कोसती और अपनी माँ से पूछती- ‘मुझे क्यों ब्याहा परदेश?’
‘मुझे क्या पता था कि ऐसा खराब निकलेगा मेरा दामाद?’- कहकर माँ रोने लगी थीं। आज वही माँ गम्भीर बीमार है और चाँदनी उसे देखने जा रही है।
जहाज कब उड़ने लगा उसे पता ही नहीं चला। जब परिचारिका ने उससे पूछा वाइन या जूस तब चाँदनी अपनी यादों की सैर से वापस आ गयी थी।
‘वाइन दे दो, आज मैं भी वाइन से अपने गम भुलाऊँगी।’
पास बैठी एक भारतीय महिला ने बड़े ध्यान से देखा कि एक भारतीय महिला वाइन पी रही है। उसने चाँदनी की ओर मुँह फेरकर अपने पति की ओर मुख किया जो अपनी निजी बोतल से निकालकर मदिरा पी रहा था। पड़ोसी औरत के पति ने अपनी पत्नी से पूछा- “पियोगी ले मेरे ग्लास में पी ले।”
‘तुम्हें शरम नहीं आती। तुम जानते हो कि मैं मजाक पसन्द नहीं करती। जब मैं पीने लगूँगी तब मना करोगे।’
एक क्षण चाँदनी को हँसी आ गयी और दूसरे क्षण अपने विचारों में खो गयी।
पता नहीं कब उसकी आँख लग गयी।
जहाज की बत्तियाँ जल गयीं। लोग शौचालय की ओर जाने लगे थे। आधे घंटे में जहाज नई दिल्ली हवाई अड्डे पर उतरेगा, यह घोषणा हो चुकी थी। चाय, नाश्ता दिया जा चुका था। सभी तैयार होने लगे थे। चाँदनी ने जहाज की खिड़की से बाहर झाँककर देखा तो आसमान साफ था। सुब की लाल-पीली किरणें आसमान प फैली हुई थीं।
जहाज जैसे ही उतरा। अपनी मातृभूमि को देखते ही चाँदनी के नयनों से आँसुओं की झड़ी सी बहने लगी। कितना सुकून मिलता है अपनी बिछड़ी हुई धरती को देखकर। जब वह जहाज से उतरी उसने जमीन की मिट्टी को माथे पर लगाया।
15 वर्षों बाद अपने देश लौटी है वह। हवाई अड्डे पर उसे उसके मामा और चचेरा भाई लेने आये हैं। चाँदनी उनसे गले मिलकर फूट फूटकर रोने लगी थी।
पहले टैक्सी से रेलवे स्टेशन तक की यात्रा। बाद में रेल से अपने गाँव तक की यात्रा आरम्भ की चाँदनी ने।
भारतीय रेल पर यात्रा आरम्भ हुई। भारतीय रेलें भी दुनिया में किसी भी देश की रेलों से कम नहीं। एक पूरा समाज यात्रा करता है भारतीय रेलों में। गरीब-अमीर छोटे-बड़े सभी साथ-साथ यात्रा करते हैं। सभी साथ-साथ बैठे होते हैं। कोई भेदभाव नहीं। पर्व, परिवार से लेकर गाँव नगर न जाने कहाँ-कहाँ की बातचीत और सूचनायें आपको मिल जाती हैं आपको भारतीय रेल में। यहाँ कोई मौन नहीं बैठ सकता। सभी के हिस्से में उसके बोलने की भागीदारी लिखी होती है।
समय-समय पर स्टेशन आते साथ में फेरी वाले। कोई चाय बेचता तो कोई मूँगफली, फल और समाचार पत्र बेचता। बैठे बैठाये सारी सेवायें मिल जातीं। आज़ादी के बाद तो भारतीय रेलों ने बहुत तरक्की की है।
उसकी सारी रेल यात्रा मजे से कट गयी।
लो रेलगाड़ी चाँदनी के मुकाम पर पहुँच गयी। गाँव की दो सहेलियाँ अपने पति के साथ साइकिल पर उसे मिलने आयीं हैं। बैलगाड़ी अलग से लेने आयी है। कितना बदल गया है। अगर अम्मा बीमार न होती तो शायद अभी गाँव न जा पाती।
अम्मा की देखभाल की। चाँदनी अपनी सहेलियों के संग गाँव में स्वच्छन्द घूमी फिरी। उतना आनन्द तो उसे अमेरिका में 15 वर्षों के दौरान कभी नहीं आया। हाँ उसके बेटे के बारे में और तलाक के बारे में दबे स्वर से लोग पूछ ही लेते। कितनी जल्दी दो सप्ताह बीत गये पता ही न चला।
अमेरिका वापस लौटते चाँदनी को अजीब सा लग रहा है। आज भी चाँदनी बैलगाड़ी पर गाँव से स्टेशन आयी थी, ठीक उसी तरह जब वह पहली बार अमेरिका जाते समय आयी थी।
तेजी से आती हुई बैलगाड़ी स्टेशन के बाहर रुकी। वे लोग बैलगाड़ी से उतरकर जल्दी-जल्दी स्टेशन की तरफ आये। गाड़ी समय से नहीं आ रही, यह जानकर सभी बैलगाड़ी की सवारियों ने राहत की साँस ली क्योंकि वे सभी दस मिनट देरी से आये थे। बैलगाड़ी का सफर एक ऐसा सफर है जिसका आनन्द स्वयं लेना चाहिये यह बताने की बात नहीं। पाँच मील की बैलगाड़ी यात्रा का अपना विशिष्ट अनुभव रहा।
न्यूयार्क में उसकी सहेलियों ने कहा था टैक्सी से आराम से जाना, हवाई अड्डे से सीधे गाँव पहुँच जाओगी। पर उसने किसी की न सुनी। पुराने अनुभवों को दोहराने का एक अलग ही आनन्द है। कितना अच्छा लगा था पगडंडियों पर दौड़कर परन्तु, अब वह संतुलन नहीं रहा। गाँव में सूना-सूना सा लगा। कुछ सहेलियाँ ब्याहकर गाँव छोड़कर चली गयीं। नौकरी की चाह में बहुत से लोग गाँव छोड़ शहर जा चुके थे। शुरू के दिनों में न्यूयार्क में सबवे (ट्राम) से यात्रा की, जो भागदौड़ शुरू हुई तो समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती। भूमिगत सबवे (ट्राम) में कोई पुस्तक पढ़ता तो कोई अखबार पढ़ता। किसी से कोई पर्दा नहीं। सभी शान्त, स्तब्ध। कोई किसी से बातचीत नहीं करता। कभी-कभी कोई खिलौने या छुटपुट सामान बेचने आ जाता या फिर संगीत बजाकर पैसे एकत्र करने वाला आ जाता तभी कुछ रौनक हो जाती थी।
रेल दो घंटे देरी से चलेगी। सुनने में आया है कि आतंकवादियों ने रेल को उड़ाने की धमकी दी थी इसलिए उसका रास्ता और समय बदल दिया गया है। उसने सोचा चलो जो देर हुई सो हुई, हादसा तो टल गया। उसे कोई जल्दी नहीं थी परिवार के लोग जो साथ थे।
रेल देरी से चलने के कारण बच्चे बिलख रहे हैं। स्टेशन पर कोई आरामघर या वेटिंगरूम नहीं था। गर्मी से हाल बेहाल हो रहे हैं। रेल की पटरियों पर भी लोग बैठे हैं। एक आदमी पटरी से कान लगा कर सुनने का प्रयास कर रहा था कि रेल आने वाली है क्या? रेल के निकट आने का आभास करने का उसका अनुभव वर्षों पुराना था।
एक पैसेंजर रेल आयी। वह भी रोक ली गयी वह भी रुककर जायेगी। कुछ ही देर में कुछ लोग खाने का सामान, फल, ककड़ी आदि बेचने आ गये हैं। यह क्या हुआ देखते ही देखते मजमा लग गया। यह लो मदारी भी बन्दरों को नचाने ले आया। रेल स्टेशन पर एक लघु मेला सा लग गया। यह है खासियत भारतीय रेल की। भारत में यात्रा करनी है तो समय लेकर आइये और आराम से यात्रा कीजिये।
आखिरकार एक लम्बी प्रतीक्षा के बाद रेल आ गयी। आँखों से आँसुओं का बहना न रोक सकी। चाँदनी सभी को हाथ हिलाकर विदाई देती रही जब तक वे आँखों से ओझल न हो गये। रेल डिब्बे के अन्दर कितना जीवन्त था सभी कुछ। जैसे नन्हा सा भारत उस डिब्बे में यात्रा कर रहा हो।
कुछ घंटे चलने के बाद भयानक आवाज के साथ रेलगाड़ी किरकिराते हुए रुक गयी। बाहर घना अंधेरा था। कोई स्टेशन भी नहीं दिखाई दे रहा था। वह खिड़की से बाहर झाँककर देखती है। कुछ यात्री रेल के नीचे उतर गये। यात्रियों ने एक दूसरे की ओर देखा। कुछ पल असमंजसीय दृष्टि से एक दूसरे के मन को टटोलते हुए लोग। कुछ निशब्द, शान्त। बच्चे सहमे हुए। लोग अपने परिचितों से वार्तालाप करते हुए आसपास चौकन्नी दृष्टि गड़ाये हुए हैं। कुछ हवा में तो कुछ यथार्थ की ओर सरकते हुए एक दूसरे की ओर इशारा करते हुइ तरह-तरह की अटकलें लगा रहे हैं।
मन में जानने की व्याकुलता आखिर रेल रुकी क्यों। एक वृद्धा फर्श पर बैठी बन्द आँखों से (जिसे शायद दिखाई नहीं देता था।), बुदबुदाई- ‘डाकू वाकू होंगे!’
‘अरे बूढ़ा शुभ-शुभ तो बोलो।’ एक दूसरे यात्री ने टोकते हुए कहा।
‘कोई ने चैन खींची होगी’ - उस वृद्धा ने अपनी बात दोहराई।
वह रेल के डिब्बे से बाहर उतर गयी। लोग चाँदनी की ओर देखने लगे थे। एक ने धीरे से कहा-
‘एक लड़की होकर जायजा लेने जा रही है।’
इंजन की ओर देखा एक बड़ी लालटेन लिए आ रहा था। वह रुक-रुक कर रेल के पहियों की तरफ भी झाँकता जा रहा था।
पास आते हुए उस आदमी ने कहा लगता है कि कुछ रेल के नीचे आ गया है।
लोग सोचने लगे‚--
‘क्या हो सकता है? जानवर या इन्सान?’
‘कुछ भी हो सकता है।’
रेल के डिब्बे में पूरा समाज सिकुड़कर पास आ गया है। सूटबूट, महँगे कपड़े पहने लोग भी आम आदमी के साथ सटकर खड़े हो गये हैं। कोई भेदभाव नहीं। क्या हादसों का यही मर्म होता है?
लालटेन लिए आदमी के पीछे-पीछे मैं भी चलने लगी। जैसे-जैसे जिज्ञासा बढ़ती जाती वैसे-वैसे अनजान दुर्घटना की आशंका से मन सहम जाता। सत्य से सामना करने की इच्छा ने उसे हिम्मत दी। हृदय की धड़कनें तेज हो रही थीं। पीछे अन्तिम डिब्बे के नीचे लालटेन की रोशनी में जो दिखा वह दिल दहलाने वाला दर्दनाक दृश्य था।
पटरी के बाहर एक युवती का शव जिसकी एक बाँह और एक पैर धड़ से अलग होकर रक्तरंजित अस्तव्यस्त पड़ा था।
आपस में कानाफूसी शुरू हो गयी-
‘किसी ने मारकर पटरियों के बीच फेंक दिया है।’
‘माता-पिता ने अपनी पसन्द की शादी करने से मना किया होगा इसलिए बेचारी ने आत्महत्या कर ली होगी।’ दूसरे ने कहा।
तभी रेल पुलिस के दो आदमी आये। उन्होंने लिखना शुरू किया। गार्ड भी कुछ नोट करता रहा और रेल पुलिस कर्मचारी से बात करता रहा।
जब दूसरी ओर गयी तो देखा कि एक बकरी का बच्चा और युवती का कटा झुलसा हाथ पड़ा था। हो न हो युवती बकरी के बच्चे को रेल से बचाने दौड़ी होगी, तभी वह रेल की चपेट में आ गयी। अब वह तो जीवित नहीं है पर अपने मौत की एक गुमनाम कहानी छोड़ गयी है।
हाँ ये रेल की पटरियाँ हैं। इनके ऊपर रेलें रेंगती हैं, दौड़ती हैं और खड़ी रहती हैं। पटरियों के बिना रेल का क्या अस्तित्व। रेलों को गति चाहिये तो पटरियों से मुँह कैसे मोड़ सकते हैं। पूरे देश को जोड़ती हैं ये पटरियाँ: कश्मीर से कन्या-कुमारी तक, पूरब से पश्चिम तक, उत्तर से दक्षिण तक। इन पटरियों ने न जाने कितनी दर्दनाक कहानियों को अपने अन्तर में समाया होगा। कितनों ने इनपर अपना जीवन त्यागा होगा। सामानान्तर रेखाओं की तरह न जुड़ी दिखाई देने वाली पटरियों में तिर्यक रेखा की तरह न जाने कितने इन्सान जाने अनजाने मौत की भेंट चढ़ गये होंगे।
चाँदनी को लगा कि दुर्घटनायें तो उसके साथ भी घटती रही हैं पर वह जीवित है। वह पटरियों को अपने जीवन से जोड़कर देखने का प्रयास करती है। आत्महत्या बुज़दिली है। “लड़कियाँ बुज़दिल नहीं होती”‚ कहते हुए वह रेल पर सवार होकर कहती है- “हाँ केवल मनुष्य हादसे रोक सकता है।”