ऋण

शशि कांत श्रीवास्तव (अंक: 218, दिसंबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

सारा नभ ऐसे फूट पड़ा
तपती धरती को सुकून आया, 
जल, सागर नभ को छोड़ चला
देखो, नभ दुनिया की माया, 
रोते नभ को भी देख के क्या
धरती का मर्म पिघल ना सका, 
धरती तो फिर भी पत्थर है
नभ तू ऐसे क्यों फूट पड़ा, 
नभ ने जो कहा सुनना ही था
सुनते ही मैंं बस ठिठक गया, 
सागर से ऋण जो लिया था वो
उसका ही फ़र्ज़ निभाया है, 
धरती नाचे झूमे सागर
नभ का कर्तव्य हुआ पूरा, 
मैंने जो सीखा था वो यही
जीवन का ऋण मैंं करूँ पूरा॥

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