क़ैद ए ज़िन्दगी से हम क्यूँ रिहा ना हो जाएँ
रवींद्र चसवाल ‘रफ़ीक़’
क़ैद ए ज़िन्दगी से हम क्यूँ रिहा ना हो जाएँ
आज अपनी शर्तों पे चाहते हैं मर जाएँ
शायरी की बातें हों ख़ुश्बुओं की बरसातें
तिनका तिनका लफ़्ज़ों में आईये बिखर जाएँ
ज़िन्दगी की राहें हों या कि मौत कि मंज़िल
जिस तरफ़ भी जाना हो मेरे हमसफ़र जाएँ
जो भटकते हैं दिन भर शाम घर को लौटेंगे
तेरे दिल में रहते हैं कैसे दर बदर जाएँ
रहगुज़र की जानिब से ये संदेसा आया है
फूल फूल महकेंगे आप जो गुज़र जाएँ
मेरे आशियाने पर बर्क़ गिरने वाली है
रास्तों से कह दीजे आज मत उधर जाएँ
ये वहम भी कैसा है आँख मलते रहते हैं
हम जिधर जिधर देखें आप ही नज़र आएँ
ऐतमाद है मुझको तुम मुझी को चाहोगी
ऐ रफ़ीक़ फिर क्यूँ हम वसवसों से डर जाएँ