है ये फ़ासलों की चाहत हमें रास्ता बना लो
रवींद्र चसवाल ‘रफ़ीक़’
है ये फ़ासलों की चाहत हमें रास्ता बना लो
ऐ रफ़ीक़ ज़िंदगी का यही फ़लसफ़ा बना लो
हो सरापा रागिनी तुम बड़ी मदभरी सदा है
सुनो, मुझसे बेसुरे को कभी हमनवां बना लो
है बला की ख़ूबसूरत बड़ी दिलकशी है इसमें
ये नहीं के ज़िंदगी को कोई सानेहा बना लो
मेरे दिल के जंगलों में है अजीब सायें सायें
मैं बिछड़ चुका हूँ ख़ुद से मुझे क़ाफ़िला बना लो
दिल की किताब में बस अब नाम है उसी का
बाक़ी जो बच गया है उसे हाशिया बना लो
क्या ख़्वाहिशों को रोकें अब शाम हो चली है
कोयल जहाँ पे चहके वहीं आशियां बना लो
सहरा की तिश्नगी में क्यूँ कर रफ़ीक़ तरसे
आँखों में डाले आँखें इसे मैकदा बना लो
1 टिप्पणियाँ
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;क्या ख़्वाहिशों को रोकें अब शाम हो चली है कोयल जहाँ पे चहके वहीं आशियां बना लो।' रफ़ीक साहब, आपकी पाँचों ग़ज़ल बहुत ही उम्दा। इस ग़ज़ल को पढ़ा तो बाक़ी की चार भी बिन पढ़े न रहा गया। जज़्बात और अल्फ़ाज़ दोनों ही का अद्भुत संगम।