पिता
डॉ. मंजू कोगियाल
मेरे जनक मेरे जन्मदाता
मेरा फ़रिश्ता मेरा आसमां।
करूँ समर्पित तुम्हें भाव अपने
करती रहूँ मैं चरण वंदना॥
मेरे गुरु मेरी प्रेरणा,
मेरे नियंता, पथप्रदर्शक मेरे।
सँवारा मुझे तुमने है पापा
शिल्पी हो मेरे जीवन के पापा॥
आज फिर वही लौटी हूँ
उन स्मृतियों की छाँव में
गुज़ारे हैं जो पल
तुम्हारे संग पापा॥
मेरी ख़ातिर प्रतिपल प्रतिक्षण
रहते थे जो सदा खड़े।
देखा उनको आज मैंने जब
बेसुध मूर्छित पड़े हुए॥
देख पिता को मूर्छित ऐसे
स्मृतियों में हम लीन हुए।
तैरने लगी यादें एक से एक
बहते नयनों की जलधारा में॥
देखकर उनको उर मेरा
उस पल कैसा व्याकुल था।
भागी उनकी तरफ़ दौड़कर
एक क़दम अब सौ पग था॥
पड़े थे वह बेसुध चित होकर
चेतना भी अब जाती रही।
सँभाल रहे थे उनको दोनों
बनकर भुजाएँ अग्रज मेरे॥
हाल पिता का पूछा जब,
बोले अग्रज व्याकुल न हो।
दशा जो भी है पिता की
किन्तु उनको जाने न देंगे॥
ऐसे में उस कठिन घड़ी में
विपत्ति और आन पड़ी।
उपचार की ख़ातिर भटक रहे थे,
किन्तु उपचार मिला न पिता को॥
ऐसी दशा देख पिता की,
अग्रज अनुज भयभीत हुए।
किन्तु हौसला बाँधा फिर से
फिर तीनों ऊर्जस्वित हुए॥
घड़ी थी आज परीक्षा की
नियति ने और विवश किया।
किन्तु तीनों ने ही मिलकर
मस्तिष्क को और तीव्र किया।
छोटी बोली कुछ हिम्मत करके
भ्राता सुनो विचार करो।
परिणाम होगा जो भी आगे, किन्तु
पिता को तुम कहीं और ले चलो॥
छोटी का निर्णय सुनकर
अग्रज दोनों तत्पर हुए।
एम्बुलेंस पर रख पिता को
फिर लेकर अन्यत्र गए॥
पाने खोने के भय में कैसे
तीनों ही थे झूल रहे॥
लेकर हाथों में हाथ पिता का
मन ही मन थे बिलख रहे॥
शल्यशाला को देख सामने
मन में कुछ आशा जागी।
हम खोने वाले थे जिनको
लगा वह अब लौट आएँगे॥
देवदूत थे या चिकित्सक
भेद न उनमें कर पाई॥
लगे सँभालने ऐसे पिता को
जैसी उनमें चेतना लौट आई॥
तभी उनमें से बोले एक
तुमने सुध सँभाली है।
वरना पहली दो रात्रि इनपर
भारी कष्टों से भारी थी॥
आकर के उसे पुण्य भवन में
तीनों ने लंबी साँसें ली।
टूटा संशय जागी आशा
भोर पिता से मिलने की॥
जीवन और मृत्यु के मध्य
दो हफ़्तों तक जंग हुई।
हुई फ़तेह जीवन की आख़िर
पिता मेरे कुछ स्वस्थ हुए॥
पाकर नया जन्म पिता का,
भ्राता भगिनी फिर धन्य हुए।
किया आभार उस परमपिता का
जो सारे कर्म के मध्य रहे॥