फागुनी दोहे - बृजमोहन गौड़
बृजमोहन गौड़हौले हौले द्वार हुई, फागुन की दस्तक।
नूपुर खनके पैर के, गर्वोन्नत मस्तक॥
टेसू बन में फूल उठा, शीतल चली बयार।
तन मन बस में न रहा, नार हुई कचनार॥
निर्मोही ने रंग दई, पिचकारी की धार।
भूल गई फागुन में, सारे शिष्टाचार॥
फागुन का मेला लगा, आग लगाए पवन।
रंगों की फुहार से, जल गया तन और मन॥
चटक गई कचनार की, कलियाँ अबके साल।
मन टेसू सा फूल उठा, चूनर हुई गुलाल॥
कमलिनी खिलती देखके, फिर बौराया आम।
चंदन महके साँस में, तन में बैठा काम॥
मुख पूनम के चंद सा, चंदन महके श्वाँस।
फगुनाई सी तरुणाई, चटकी प्रीत पलाश॥
रोली मुख पर मेल दई, तन पर दियो गुलाल।
मन पर आधिपत्य किया, सफल हुई सब चाल॥
रिश्ते सारे बह गये, रंगों की बौछार ।
रंग गई भाभी फाग में, देवर की पिचकार॥
मन मस्ती में डूब रहा, हिरदय बाजी चंग।
फागुन के प्रतिमान सब, बस गये अंग-प्रत्यंग॥
चुटकी रोली गाल पे, मले जो कर मनुहार।
बेगाना अपना बने, फागुन के त्यौहार॥
तन मन गहरे बस गये, जब फागुनी रंग।
कचनारी नैना भये, हृदय बजी उठी चंग॥
रंगों की प्रतिक्रिया से, टूटे चोली बंद।
चाहकर भी न छिप सके, मन के अन्तर्द्वन्द्व॥
बिरहन बैठी द्वार पे, कोसती अपने भाग।
तन मन शीतल न रहे,रंग लगावे आग॥
गाल गुलाबी हो गये, काया भई रतनार।
बिन रंगों के रंग गई, फागुन पिय के द्वार॥
चन्दा के संग दिन बिता, सूरज के संग रात।
आठ प्रहर के साथ में, हुई बिन शब्दों के बात॥
रंग रंगी उसे देखकर, ऐसा हुआ प्रभाव।
तन मन से काफूर हुये, जोगी वाले भाव॥
रंग दोऊ नीके लगे, एक श्याम एक गौर।
गोकुल से साम्राज्य है, बरसाने तक ठौर॥
श्याम वर्ण ने रच दिया, रंगों का परिवेश।
मस्ती और उल्लास से, दिया प्रेम संदेश॥
रोली रंग दो प्रेम की, खुशियों का गुलाल।
मस्ती के सतरंगी रंग, रंग दो भारत भाल॥
बृजमोहन गौड़