चक्रवात

27-02-2016

चक्रवात

बृजमोहन गौड़

और इस वर्ष भी उसका वही नतीजा निकला जो विगत दो वर्षो से चला आ रहा था। उसके अन्य साथीगण किलक रहे थे। आज छुट्टियों में यहाँ-वहाँ जाने के "प्लान" बना रहे थे। उसने जैसे-तैसे निगाह बचाकर अपनी राह ली। वे सब अपनी ही बातों में व्यस्त थे। लेकिन वह इन सब बातों से बेख़बर अपनी धुन में चला जा रहा था। सभी की बातें असहनीय थी। अचानक उसके क़दम घर में की बजाय पास की नुक्कड़ की ओर मुड़ गए जहाँ उसी की मानिंद और भी साथीगण बैठा करते थे। यदा-कदा किसी "बाला" के निकलने पर छींटाकशी करते एवं हँसी-ठहाकों में मशग़ूल हो पान का बीड़ा दबाए पिचकारियाँ चलाते रहते। किसका किससे क्या चल रहा है? कौन कब, कहाँ व कैसे जा रहा है? आदि-आदि अनेकानेक ऐसी अनर्गल बातें जो फ़ुर्सत में रहने वालों के दिमाग़ में आया करती हैं। महाविद्यालयीन चुनाव प्रक्रिया का निर्माण करते थे। किसको किस तरह बैठाना है। किससे चन्दा इ्कठ्ठा करना है, किस बस वाले को "देखना" है, अपोज़िट में कौन खड़ा हो रहा है, किसको कैसे किडनेप करना है और चुनाव सम्पन्न हो जाने पर अगले चुनाव की रूपरेखा बनाने में जुट जाते।

धीरे-धीरे चलता हुआ रवि अपने साथियों के बीच पहुँचा।

"रिजल्ट लेकर आ रहे हैं… जनाब?" - विजय ने उसे देखते हुए व्यंग्य कसा।

"अरे छोड़ो भी यार, तुम्हें तो एक ही विषय में सप्लीमेंट्री आई है। एडमीशन तो मिल ही जाएगा। फिर रहे अगले साल के… प्रेसीडेण्ट!"

"अमाँ छोड़ो भी यार क्या ग़म करते हो। ये लो भई रवि, इस वर्ष नहीं तो अगले वर्ष देखा जाएगा," कहते हुए रमेश ने उसकी तरफ़ चाय का ग्लास बढ़ा दिया और सिगरेट सुलगा ली। उसने सोचा कितना घ्यान रखते हैं मेरे दोस्त मेरा! उसने मस्तिष्क को हलका सा झटका दिया और चाय का ग्लास ले धीरे-धीरे सुड़कने लगा। दोस्तों के मध्य अन्य कई बातें चलती रहीं लेकिन आज उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाईं।

घड़ी ने रात के ग्यारह बजाए। लड़खड़ाते क़दमों से उसने दरवाज़ा खोला तो माँ से सामना हो गया। वह एक पल को चौंका फिर अपने आप को संयत कर अपने कमरे की ओर बढ़ गया। माँ चाहते हुए भी कुछ न बोल सकी। रवि की इन रोज़-रोज़ की हरकतों से परेशान हो उठी थी वह तो। लेकिन रवि पर किसी की बातों का कोई असर ही नहीं होता था। कॉलेज जाने की बजाय वह वही नुक्कड़ पर पहुँच कर अपने दोस्तों के साथ नित नई कारगुज़ारियाँ करता। घर पर शिकायतें आतीं और वह निखट्ट बना सुनता रहता। ज़्यादा हुआ तो माफ़ी माँगकर पिण्ड छुड़ा लेता लेकिन अगले दिन वही हरकतें फिर शुरू।

कहते हैं "माँ नहीं रहे मौसाल नहीं रहता, व पिता न रहें तो परिवार"। यही स्थिति कुछ उसके साथ भी हुई। 10 वर्ष की आयु में ही उसके सिर से पिता का साया उठ गया था। जैसे-तैसे उसकी बहन का ब्याह हुआ एवं उसकी पढ़ाई ज़ारी रही लेकिन ग़लत संगति का असर पाकर वह अंधकार की गर्त में डूबता ही चला गया। अनेक बुरी आदतों का शिकार होकर रह गया। पिता न रहने से उसे डाँटने-डपटने वाला या उसे सही राह पर लाने वाला कोई ना था। एक बार शहर में एक चाकूबाज़ी की घटना हुई जिसमें रवि एक बड़ा सा घाव लिए घर आया। माँ से न देखा गया। माँ की ममता उमड़ पड़ी जब तक घाव भर न गया उसकी सेवा-सुश्रुषा करती रही। जब-जब भी वह कराह उठता तुरन्त उसको ढाढस बँधाने लगती। लेकिन जब वह स्वस्थ हुआ तो फिर वही क्रियाकलाप शुरू।

न जाने उसके साथियों ने उस पर कैसा असर डाला था कि वह उनसे बिना मिले उसे चैन ही नहीं मिलता था। माँ उसे समझाया करती थी, "बेटा तू जिन राहों पर चल रहा है उन राहों पर ख़ून ही ख़ून है। तू अभी बच्चा है समझता नहीं है। मुझे डर है कहीं किसी दिन कोई अनर्थ न हो जाये।" …वह कोई जवाब नहीं देता और बाहर निकल जाता। माँ को उसकी ढिठाई पर ग़ुस्सा तो बहुत आता लेकिन उससे कोई फ़ायदा भी तो न था।

और आज चार दिन से उसका कहीं भी पता नहीं था। माँ चार दिन से उसकी राह देख रही थी। भयभीत थी शायद अनिष्ट की आशंका से। तलाश की लेकिन कहीं पता न चला। चार दिन तो क्या, चार माह और चार वर्ष व्यतीत हो गये। इस बीच वह उसका पता तो न पा सकी अलबत्ता एक दिन 500/- रुपये का मनीआर्डर उसके नाम आया। भेजने वाले ने अपना अता-पता व नाम तक नहीं लिखा था। पति की जमा पूँजी तो लगभग ख़त्म हो चली थी। कुछ बेटे द्वारा उड़ा दी गई थी तो कुछ सामान्य ज़रूरतों को पूरा करने में ख़र्च हो गई थी। ऐसे में 500/- रुपये उसके लिये पर्याप्त थे। उसे अकेलापन व सूनापन कचोटता था। त्रस्त हो बुढ़िया ने सोचा क्यों न अपनी बेटी के घर रहा जाय। कुछ दिन, कुछ साँसें ही तो बची हैं। शायद वहीं कट जारँ। रुपयों को सहेजकर आवश्यक सामान ले वह रेलवे स्टेशन की ओर चल दी।

रेल की सींटी की आवाज़ पर उसकी आँखें भर आईं। अपना बेटा तो खो चुकी थी, शहर भी छोड़कर जाना पड़ रहा था। जाने इस शहर में फिर उसका आना होगा भी या नहीं। यही वह शहर था जहाँ वह पहली बार दुल्हन बनकर आई थी। तब कितना अच्छा लगा था उसे। आज उसी शहर का विछोह उसके हृदय को विदीर्ण किये दे रहा था। अर्धविक्षिप्त सी वह अपनी ही धुन में बाहर जल्दी से आकर गुज़र जाने वाले पेड़ों को देख रही थी। शाम का धुँधलका घिर आया था। एक बार फिर अपने बेटे की तस्वीर उसके ज़ेहन में उभर आई। रह-रहकर बेटे का विछोह उसके शांत जल से मन को उद्वेलित कर जाता। वह शांतचित्त होने का प्रयत्न करती लेकिन एक टीस उठती और अन्तस तक एक अनजानी कसक छोड़ जाती। परिणामस्वरूप मन का दर्द आँखों के माध्यम से तरल हो बह उठता।

बाहर शाम का धुँधलका गहराता जा रहा था बिल्कुल उसी के जीवन की तरह, जिससे वातावरण अंधकारमय होता जा रहा था। लम्बे सफ़र के कारण उसकी आँखें उनींदी सी हो रही थीं। वह आँखें बंद किये अपनी मंज़िल की ओर बढ़ती जा रही थी। गाड़ी रुकने का उपक्रम करने लगी शायद कोई स्टेशन आ गया था।

वह एक छोटा सा स्टेशन था। जहाँ मात्र एक टीन-शेड डालकर छोटा सा बुकिंग आफिस बनाया गया था। बुकिंग आफिस के अलावा वहाँ अन्यत्र रोशनी की मात्र कल्पना ही की जा सकती थी। और..... तभी एकाएक आठ-दस हथियारों से लैस डाकू डिब्बे में आ चढ़े।

"ख़बरदार, अगर किसी ने चालाकी की तो। जिसके पास जो भी है निकालकर हमारे हवाले कर दो वरना जान से हाथ धो बैठोगे," एक कड़कदार आवाज़ गूँजी।

उनींदी सी बुढ़िया चौंक उठी और टुकुर-टुकुर सारा नज़ारा देखने लगी। सभी यात्रियों ने अपने-अपने नगदी व जेवर उन्हें देने में ही ख़ैर समझी। लेकिन बुढ़िया उन लोगों की निगाह बचाकर उतरने लगी।

"धां ऽ ऽ ऽ य," एकाएक एक फ़ायर हुआ जो उन डाकुओ के सरदार ने किया था जो अभी-अभी दूसरे डिब्बे से आया था। गोली बुढ़िया की पीठ में लगी थी और वह हरहरा कर गिर पड़ी। 
"चालाक बुढ़िया, अगर किसी ने कोई चालाकी की तो उसका भी वही हाल होगा जो इस बुढ़िया का हुआ है। जो कुछ है हमारे हवाले कर दो!"

आवाज़ सुनकर कराहती हुई बुढ़िया चौंक उठी। वह पूरी शक्ति के साथ चीखी.....

"र ऽ ऽ ऽ वि....!"

वह भी चौंक उठा। दौड़कर बुढ़िया के पास पहुँचा और चिल्ला उठा, "माँ ऽ ऽ ऽ ऽ!"

उसने नक़ाब उतार कर फेंक दिया व पागलों की भाँति माँ को चूमने लगा।

"ये मुझसे क्या हो गया? माँ मैं ये क्या कर बैठा? हम अभी अस्पताल चलेंगे माँ तुझे कुछ नहीं होगा!" लेकिन बुढ़िया को बहुत कुछ हो चुका था। रक्त काफ़ी बह गया था वह बोली, "नहीं बेटा, अब कुछ नहीं हो सकता। बहुत देर हो चुकी है। तू इतने दिन कहाँ था रे! देख मैं कहा करती थी न इन राहों में ख़ून ही ख़ून है। चाहे वह तेरा बहे या मेरा या अन्य लोगों का। बस एक आख़िरी विनती है बेटा कि अब किसी से उसकी माँ न छीनना बेटा .... आह .... आह ....!" और बुढ़िया ने अपने रुपये निकाल कर उसके हाथों पर रख दिये... और निर्जीव हो उसका शरीर एक और लुढ़क गया।

सुबह समाचार-पत्रों में लोगों ने पढ़ा कि रेल के तृतीय श्रैणी कम्पार्टमेण्ट में एक कुख्यात दस्यु और उसकी माँ दोनों की लाश पाई गई।

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