परदेसी सबेरा

05-05-2002

परदेसी सबेरा

अमित कुमार सिंह

सुबह सुबह आँख खुली
हो गया था सबेरा
मन में जगा एक कौतुहल‌
कैसा होगा ये
परदेसी सबेरा
बात है उन दिनों कि
था जब मैं लन्दन में
लपक कर उठा मैं
खोल डाली सारी
खिड़कियाँ, 
भ‌र‌ ग‌या था अब‌
क‌म‌रे में उजाला
र‌वि कि किर‌नों पर
अब‌ मैंने
नज़र डाली
ध्यान से देखा
तो पाया न‌हीं है
अन्त‌र उजाले की किर‌नों में
स‌बेरे की ताज़‌गी में
या फिर‌ ब‌ह‌ती सुब‌ह‌
की ठन्डी ह‌वाओं में, 
पाया था मैंने उन‌में भी
अप‌नेप‌न‌ का एह‌सास
ल‌ग‌ता था जैसे कोई
अप‌ना हो बिल्कुल‌ पास
मैंने त‌ब ये जाना
अल‌ग कर दूँ
अग‌र‌ भौतिकता की
चाद‌र‌ को तो
पाता हूँ एक‌ ही
है स‌बेरा, 
चाहे हो वो ल‌न्द‌न‌
या फिर हो प्यारा
देश‌ मेरा

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