'भूख’ सुनते ही
होता है अहसास
किसी चाहत का
किसी कमी का
ज़िन्दगी के दरवाज़े पर
बार-बार दस्तक देती
किसी आहट का। 
 
किसी को भूख है
शोहरत की
किसी को है रोज़गार की
किसी को वासना की
तो कोई पैसों का
भूखा है। 
 
किसी को ताक़त की
भूख है
किसी को सेहत की
तो कोई हुस्न
का दीवाना है
विलासिता का कोई
 
उड़ता हुआ परवाना है। 
भाइयों देखो
क्या आया ज़माना है। 
 
मित्र ‘अमित’ तुम भी
नहीं हो कम
लगी रहती है तुम्हें भी तो
लेखन की भूख हरदम। 
 
नज़रें उठा के
देखो
नहीं हो तुम अकेले
भूखों की इस नगरी में
तुमसे भी बढ़कर
हैं अलबेले। 
 
सड़क पर खड़े
उस बेबस-लाचार
बूढ़े को देखो! 
फैले हुए हाथ, 
और आँखों से
छलकती भूख
को तो देखो! 
 
उसकी ये भूख
हमारी भूख से
है बिल्कुल अलग-
ख़ुद की हड्‍डियों
को गलाकर, 
क्षुधा की अग्नि को

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