पैडल-रिक्शा से ई-रिक्शा तक: चंद्रमणि रघुवंशी के साथ
डॉ. देवराजप्रो. देवराज की डायरी
21 दिसंबर, 2022: गाज़ियाबाद।
चंद्रमणि रघुवंशी आजकल तीन-चार दिन (कई बार प्रति दिन) के अंतराल पर नियमित रूप से फोन करते हैं, कहते हैं, “जाड़ों में कुछ देर धूप में बैठता हूँ, तो प्रिय जनों (कभी-कभी ‘विद्वज्जनों’ शब्द का प्रयोग करते हैं, जिसके पीछे छिपा परिहास और व्यंग्यार्थ समझना हर किसी के लिए आसान है) को फोन करके हाल-चाल जान लेता हूँ।” इसी हाल-चाल जानने के बीच उनके जीवन के रोमांचक प्रसंगों और जन-हित के कामों के बारे में आधी-अधूरी जानकारी मिल जाती है। कई बार कहता हूँ कि उनकी आयु अब तक सँजोए-कमाए जीवनानुभवों को लिपिबद्ध करने की हो गई है, अतः अभी तक जो छिटपुट लिखा है, उसे संकलित कर लें और व्यवस्थित ढंग से संस्मरण अथवा आत्मकथा लिख डालें। बिजनौर टाइम्स दैनिक के संपादक हैं, सो काफ़ी समय संपादकीय दायित्व निभाने में निकल जाता है, लेकिन सभी सजग संपादकों ने संपादन क्षेत्र के बाहर जाकर ऐसा बहुत लिखा है, जो जनता के काम आ रहा है; इसलिए चंद्रमणि रघुवंशी को भी उस परंपरा का निर्वाह करना चाहिए। कहे के प्रभाव की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
आज चंद्रमणि रघुवंशी का फोन आया, तो ई-रिक्शा-पुलर समुदाय के लिए पिछले काफ़ी दिनों से चल रहे संघर्ष की सफलता की सूचना मिली। बोले—
“कल जनपद बिजनौर के सभी पैंतीस हज़ार ई-रिक्शा-पुलर हड़ताल पर थे।”
“अच्छा, तो आपने एक माह पहले जो ज्ञापन शासन को दिया था, उसका कोई असर नहीं हुआ था!”
“धीरे-धीरे हो रहा होगा। डी.एम. की स्थिति भी तो आप जानते ही हैं। उनके हाथ पूरी तरह खुले तो होते नहीं हैं। उन्हें फूँक-फूँक कर काम करना होता है, क्या पता ऊपर बैठे अलाना-फ़लाना क्या सोच बैठें!”
“यह तो ठीक है, ज़िलाधिकारी और पुलिस कप्तान आम जनता के लिए ही माई-बाप होते हैं, अपराधियों के लिए भी आतंक का पर्याय होते होंगे, लेकिन ऊपर वाले सत्ताधारियों और उनके इरादों का अंधा साथ देने वाले कमिश्नरों-सचिवों की टेढ़ी नज़र से तो बच कर ही रहते हैं।”
“आपको एक क़िस्सा बताऊँ। हमारे ही जनपद के एक क़स्बे में रिक्शा वालों के नेता एक विरोधी पार्टी के ज़िलाध्यक्ष थे। बहुत लोगों का नेतृत्व पाकर राजनीति के समीकरण भुला बैठे और माँगें लेकर बिजनौर चले आए। यहाँ डी.एम. से गरमा-गरमी की और झगड़ा कर बैठे। सोचा होगा कि रिक्शा वालों की समस्याएँ चाहे हल हों या नहीं, लेकिन हड़ताल करवा कर अपनी नेतागीरी तो चमका ही लेंगे। अब डी.एम. तो जानते थे कि ये नेताजी फ़िलहाल उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते, दूसरे अगर इनके कहे पर चले, तो जो सत्ता पक्ष के ज़िला नेता हैं, वे उनका जीना हराम कर सकते हैं। उन्होंने नेता जी को तो समझा-बुझा कर विदा कर दिया और यातायात के संबंधित अधिकारी को बुलवाया और रिक्शा वालों की तरह-तरह से जाँचें करवानी शुरू कर दीं। समस्याओं का हल तो दूर की कौड़ी हो गया, बेचारे ग़रीब आफ़त में ज़रूर पड़ गए।”
“अधिकारी ने यही किया होगा कि कहाँ खड़े हैं, कहाँ ट्रैफ़िक जाम का करण बन रहे हैं, रिक्शा अपनी है या किराए की या चोरी की, किसी छीन-झपट में तो शामिल नहीं हैं, सवारियों से अधिक किराया तो नहीं माँग रहे हैं या बेबात झगड़ा तो नहीं कर रहे हैं . . .”
“अब जो भी हो, यातायात के अधिकारी-कर्मचारी छोटे से लेकर बड़े वाहन वालों को हज़ार तरह से तंग कर सकते हैं, और पुलिस भी जब मैदान में आ जाए, तो रिक्शा वालों की हालत तो वैसे ही ख़राब हो जाएगी।”
“आपका कहना सही है।”
“हाँ, तो मुझे यह बात पता थी। आप जानते ही हैं कि मैंने कभी किसी राजनैतिक दल की सदस्यता नहीं ली, इसलिए मेरे साथ वह बात नहीं थी। मुझे डी.एम. या किसी अन्य अधिकारी के सामने जाने और रिक्शा-पुलर समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में तर्कों के साथ अपनी बात रखने में कोई झिझक नहीं थी।”
“इसीलिए आपका संघर्ष सफल हुआ . . .”
“हाँ, डी.एम. ने ई-रिक्शा-पुलरों से संबंधित माँगें मान लीं, तुरंत ही अधिकारियों को बुलवा कर निर्णय लागू करने की प्रक्रिया भी प्रारंभ करवा दी। जो माँगें उनके स्तर की नहीं थीं उनके लिए मैंने कहा कि वे उन्हें शासन को भेज दें।”
“अच्छा, मुख्य माँग क्या थी?”
“आपको आश्चर्य होगा कि यातायात विभाग की ओर से एक ई-रिक्शा-पुलर से पंद्रह साल का रोड-टैक्स बाईस हज़ार रुपए एक साथ जमा करवाया जाता है, जबकि एक ई-रिक्शा की आयु साधारणतः केवल दस साल की होती है। उसके बाद वह चलाने लायक़ नहीं रहती। अब आप सोचिए कि ई-रिक्शा की आयु दस साल और रोड-टैक्स पंद्रह साल का बाईस हज़ार, वह भी एक साथ। क्या यह न्यायसंगत है? और क्या कोई रिक्शा चलाने वाला एक साथ बाईस हज़ार रुपए अदा कर सकता है, ऊपर से तुर्रा यह कि टैक्स जमा नहीं किया, तो रिक्शा सड़क पर नहीं ला सकते।”
“तो कल क्या हुआ?”
“कल तय हो गया और लागू भी हो गया कि एक ई-रिक्शा-पुलर पंद्रह साल एक साथ के बदले हर साल एक हज़ार रुपया रोड-टैक्स जमा करेगा। इस निर्णय का फल यह हुआ कि पहले जहाँ डेढ़ हज़ार रुपए प्रति वर्ष के हिसाब से टैक्स भरना होता था, वहीं अब साल का एक हज़ार भरना होगा। दूसरी बात, पंद्रह साल वाली बंदिश हट गई। तीसरी बात, एक साथ भारी धन-राशि नहीं भरनी होगी। यह आसानी उस ग़रीब को ज़िन्दा रहने देगी और परिवार का पालन करने देगी, वह अपने बच्चों को कुछ पढ़ा-लिखा भी सकेगा।”
“यह तो आपके प्रयास से ई-रिक्शा वालों को बड़ी सफलता मिली।”
“हाँ, और मैं एक काम और करवाने में लग गया हूँ। मैंने कहा है कि ई-रिक्शा को मोटर व्हिकल ऐक्ट से बाहर रखा जाए और उसी प्रकार म्युनिस्पैलिटि एक्ट के अधीन लाया जाए, जैसे कभी पैडल-रिक्षा हुआ करती थी।”
“आपकी इस माँग का आधार-कारण क्या है?”
“देखिए, ई-रिक्शा न डीज़ल से चलती है, न पैट्रोल से, वह बैटरी से चलती है। उसमें गीयर-बॉक्स भी नहीं होता। तो वह पैडल-रिक्षा में बैटरी लगाने के बराबर है (भले ही उसके आकार-प्रकार में परिवर्तन कर दिया गया हो), तो उसे स्वाभाविक रूप से मोटर व्हीकल एक्ट के भीतर रखना सही नहीं लगता।”
“ऐसा करने से लाभ क्या होगा?”
“पहली बात तो यह है कि ई-रिक्शा का पंजीकरण म्युनिस्पैलिटि में होगा और प्रति वर्ष का टैक्स भी कम लगेगा। इससे हमारे ही समाज के इस निर्धनतम वर्ग की रोज़ी-रोटी चलती रहेगी। आप समझिए कि ज़िला बिजनौर में पैंतीस हज़ार ई-रिक्शा-पुलर हैं। यदि परिवार का औसत पाँच ही मान लिया जाए, तो लगभग पौने-दो लाख लोगों की रोज़ी-रोटी ई-रिक्शा व्यवसाय से जुड़ी हुई है। इतनी बड़ी जनसंख्या के पेट पर लात नहीं मारी जा सकती।”
“इतना भारी लक्ष्य पाने की आपकी कार्य-योजना क्या है?”
“यह डी.एम. स्तर की बात नहीं है, इसीलिए मैंने ज़िलाधिकारी से निवेदन किया है कि वे हमारी इस माँग को शासन को भेज दें, उसके बाद हम अपने प्रयास शुरू करेंगे और ज़रूरत पड़ी तो आंदोलन भी करेंगे। सफलता-असफलता बाद की बात है। डी.एम. ने आश्वासन दिया है कि वे अपने प्रतिवेदन के साथ हमारी माँग शासन को भेज देंगे।”
चंद्रमणि रघुवंशी पिछले लगभग पैंतालीस साल से बिजनौर के रिक्शा-पुलर समुदाय से जुड़ कर उनके हितों की रक्षा का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। जब उन्होंने काम शुरू किया, तब तक ई-रिक्शा-युग नहीं आया था, पैडल-रिक्षा का ज़माना था, सहारनपुरी रिक्शा रिक्शा-पुलर समुदाय के बीच प्रतिष्ठा की निशानी मानी जाती थी, कुछ रिक्शाएँ बहुत छोटी गद्दी वाली होती थीं, जो मेरठ, गाज़ियाबाद जैसे नगरों में बनती थीं। सवारी को पीछे गद्दी पर बिठा कर रिक्शा-पुलर आगे वाली छोटी-सी गद्दी पर बैठ जाता था और पैडल पर पैर जमाने के बाद पेट, फेफड़ों और आँतों का पूरा बल समेट कर रिक्शा खींचना प्रारंभ करता था। यह आदमी को आदमी द्वारा एक सामान्य मशीन के सहारे ख़ुद ढोने, ढोते जाने वाला काम था, जिसमें जितना परिश्रम पाँवों को करना पड़ता था, उससे कहीं अधिक निर्धनता की चुनौतियों से टूटते-जुड़ते पेट को, फेफड़ों को, पसलियों को, दिल को, और उसी के बराबर घर में चूल्हे के धुँए से आँखें फोड़ती पत्नी, फटे कुर्ते से घुटने ढकने की कोशिश में उलझे बालकों और बीमार माँ-बाप की इच्छाओं को।
उधर विकट हाँफनी चढ़ जाने के बावजूद रिक्शा खींचते रहने वाला पुलर एक पल को भी पैडल पर ज़ोर लगाते अपने पैरों को रोकने की ग़लती नहीं कर पाता था, क्योंकि पीछे बैठी सवारी को हमेशा अपने गंतव्य पर पहुँचने की जल्दी मची रहती थी। रिक्शा की चालन-गति तनिक धीमी पड़ी कि डाँट शुरू, “क्या कर रहे हो भैयाssss! समझ नहीं रहे हो कि मुझे अपने काम में देरी हो रही है, इससे तो पैदल चले जाना ही अच्छा था, जब रिक्शा नहीं चला सकते, तो घर से आते ही क्यों हो . . .!!!” आदि-आदि। हैसियत (?) वाली कुछ सवारियाँ तो गालियों पर उतर आती थीं। रिक्शा-पुलर शायद ही कभी प्रतिवाद में कुछ कह पाता था, अधिकतर वह मौनी बाबा बना पैडल पर पैरों की ताक़त को शक्ति भर बढ़ाने में लगा रहता था।
मंज़िल पर पहुँच कर किराया लेते समय पहले अँगोछे से गर्दन, माथे, छाती, चेहरे का पसीना पोंछना ज़रूरी होता था। अँगोछा काफ़ी कुछ पसीने से तर हो आता था, लेकिन उसी की कोर से आँखें भी मलनी होती थीं, क्योंकि माथे पर उतर आया पसीना टपक कर नाक और आँखों के रास्ते ही छाती तक आता था। इसके बाद किराये के साथ सवारी की दीक्षांत हिदायत भी गाँठ बाँधनी होती थी–“मेहनत करो, इस तरह से मरी-मरी रिक्शा चलाओगे, तो तुम्हारी रिक्शा में भला बैठेगा कौन, समझ लो, मुफ़्त में किराया कोई नहीं देगा, जाओ अब।”
भारत में पहले-पहल गाँधी जी ने पैडल-रिक्षा-पुलर के जीवन को समझने की कोशिश की थी। उन्हें आदमी द्वारा आदमी को खींचने की मजबूरी से घृणा हुई थी। उन्होंने आह्वान किया था कि व्यवसाय की यह मानव-विरोधी प्रथा बंद होनी चाहिए और जो लोग इससे अपनी रोज़ी चला रहे हैं, उनके लिए समाज को कोई वैकल्पिक व्यवस्था बनानी चाहिए। मैंने अपने वर्धा प्रवास वाले दिनों में देखा था कि गाँधी जी के प्रभाव के कारण इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक महाराष्ट्र के वर्धा नगर में और गाँधी जी के सेवाग्राम आश्रम क्षेत्र में पैडल-रिक्षा का चलन नहीं था। वहाँ एक और बात देखी, कि वर्धा रेलवे स्टेशन पर तो मिलने प्रारंभ हो गए हैं, लेकिन सेवाग्राम रेलवे स्टेशन पर आज भी कुली नहीं होते। सवारियों को अपना सामान स्वयं ही उठा कर बाहर आना होता है। कई बार वहाँ के रेलवे कर्मचारी जब किसी के साथ भारी सामान देखते हैं, तो सहायता को अवश्य दौड़ आते हैं। यह भी गाँधी जी का ही बचा रह गया प्रभाव है। आजकल जिस प्रकार गाँधी जी के विषय में देश भर में भ्रामक समझ बनाने की निहित स्वार्थी कोशिशें की जा रही हैं, उन्हें देखें, तो यह बियाबान रेगिस्तान में छोटे-से नखलिस्तान जैसा अनुभव देता है।
रिक्शा-व्यवसाय के लिए इक्कीसवीं शताब्दी की एक ऐतिहासिक देन ई-रिक्शा के रूप में प्रकट हुई। इसका निर्माण थोड़े-से अंतर के साथ बहुत कुछ नगरों-कस्बों में चलने वाले थ्री-व्हीलर जैसा किया गया है। सवारियों के बैठने के लिए आमने-सामने दो लंबी गद्दीदार सीटें, जिनमें से प्रत्येक पर कम से कम दो सवारियाँ बैठ सकती हैं, आगे चालक के बैठने के लिए एक लंबी गद्देदार सीट, जिस पर वह अग़ल-बग़ल दो सवारियाँ भी बैठा लेता है, सामने बारिश और ठंडी-गरम हवा के थपेड़ों से बचाने के लिए विंड-स्क्रीन, चमचमाता रंग-रोगन, स्टाइलिश हैडल, दमदार बैटरी और ऊबड़-खाबड़ सड़क पर भी आराम से चल सकने वाले पहिए। यह रिक्शा-क्रांति है, जिसने भारत के आम आदमी के यातायात को सुखद बना दिया है, इसीलिए अस्तित्व में आने के कुछ ही वर्षों में इसने शहर-नगर-गाँव तक अपनी पहुँच बना ली है। अब पैडल-रिक्षा इक्का-दुक्का ही दिखाई देते हैं। लगता है, जिनके पास बैकों की औपचारिकताएँ पूरी करने की सामर्थ्य भी नहीं है, वे ही पैडल-रिक्षा लेकर सवारियों की आस में यहाँ-वहाँ खड़े होने को मजबूर हैं। यदि हमारी बैकिंग-व्यवस्था ग़रीबों के लिए सही में लचीली हो जाए, जिस प्रकार बैंक उद्योगपतियों को दिया उधार वसूल न होने पर अधिक चिल्ल-पौं नहीं मचाते, उसी प्रकार निर्धनों को दिए जाने वाले क़र्ज़ को भी दयालु दृष्टि से देखने लगें और राज्य-सत्ता वास्तव में कल्याणकारी राज्य की संवैधानिक धारणा के प्रति ईमानदारी से निष्ठावान हो जाए, तो बचे हुए पैडल-रिक्षा वाले भी ई-रिक्शा-पुलर बन जाएँ। आत्म-निर्भर भारत का राग अलापने वालों को इस ओर ध्यान देना चाहिए।
चंद्रमणि रघुवंशी जब पहले-पहल रिक्शे वालों के बीच गए, तो उन्हें उनका विश्वास अर्जित करने में काफ़ी परिश्रम करना पड़ा। कारण यह था कि उनके पहले जिन भी प्रभावशाली लोगों को रिक्शा वालों ने अपना नेतृत्व सौंपा था, वे उनके संख्या-बल को अपना प्रभाव बढ़ाने वाला कच्चा माल समझते थे–“ऐसा सप्राण कच्चा माल, जिसे आवश्यकता पड़ते ही भड़काऊ भाषण की आग में पका कर भीड़ में बदला जा सकता था और ज़िले के कलक्टर सहित किसी भी बड़े अधिकारी के सामने खड़ा करके आतंक पैदा किया जा सकता था। उन्हें इस बात से ज़्यादा मतलब नहीं रहता था कि रिक्शा वालों के हित सध रहे हैं या नहीं, बल्कि इस बात का अधिक ध्यान रहता था कि उनके अपने हित अधिकारियों से भी सधते रहें और रिक्शे वालों से भी। वे रिक्शा वालों को अपने वोट-बैक के रूप में भी देखते थे और चुनावी माहौल को अपने पक्ष में करने के लिए प्रयोग किए जाने वाला औज़ार के रूप में भी। इसके लिए इस प्रकार की गतिविधियों और भारी-भरकम आश्वासनों का सहारा लेते थे कि रिक्शा-पुलर समुदाय के वोट उन्हीं को मिलें, साथ ही अपने प्रत्याशी के पक्ष में जुलूस निकालते समय बैटरी-माइक-हॉर्न रखने के लिए मनचाही संख्या में रिक्शाएँ भी मुफ़्त मिल जाएँ और ‘जीतेगा भई जीतेगा . . . वाला जीतेगा’ नारे लगा कर विरोधियों के मन में दहशत पैदा करने के लिए जन-बल भी उपलब्ध हो जाए।”
चंद्रमणि रघुवंशी युवा होते-होते इस यथार्थ से परिचित हो गए थे। वे बिजनौर टाइम्स के संस्थापक संपादक बाबूसिंह चौहान और विमला देवी (जिन्हें वे बीबी जी कहते हैं) के पुत्र हैं। बाबूसिंह चौहान अपने क्षेत्र के प्रारंभिक वामपंथियों में से थे, स्वतंत्रता आंदोलन से निकट से जुड़े थे और जनता के मुद्दों को लेकर जनांदोलन चलाते हुए जेल जाते रहते थे। कहा जाता है कि एक बार विमला देवी को किसी ने बताया कि चौहान साहब सरकार को क्षमा का पत्र सौंप कर बाहर आने की तैयारी कर रहे हैं। विमला देवी ने समाचार की सत्यता का पता लगाने में भी समय नष्ट नहीं किया, बालपन से कैशोर्य की ओर क़दम बढ़ाते अपने बेटे चंद्रमणि (उनके लिए चंदू) को ज़िला-जेल भेज कर बाबूसिंह चौहान से कहलवा दिया कि ‘यदि माफ़ी माँग कर जेल से बाहर आने की योजना हो, तो घर आने की ज़रूरत नहीं है।’ अनुमान किया जा सकता है कि चंद्रमणि रघुवंशी किस प्रकार के कठोर, ईमानदार और संघर्षधर्मी पारिवारिक वातावरण में युवा हो रहे थे और वह कौन-सी बेचैनी थी, जो उन्हें एक निर्धन क़स्बाई श्रमिक वर्ग से जुड़ कर काम करने के लिए प्रेरित कर रही थी! इसी पृष्ठभूमि में यह समझना भी कठिन नहीं है कि उन्होंने सार्वजनिक जीवन में क़दम रखने का निश्चय करने की दहलीज़ पर ही क्यों यह संकल्प भी कर लिया था कि वे कभी किसी राजनैतिक-दल के सदस्य नहीं बनेंगे। इस आयु में भी जब चंद्रमणी रघुवंशी का फोन आता है, तो वे कई बार बातचीत में प्रसंग आने पर यह कहना नहीं भूलते कि ‘यदि मैं किसी राजनैतिक-पार्टी का सदस्य बन जाता, तो मुझे थोड़ा अतिरिक्त बल अवश्य मिल जाता, लेकिन मेरी पहली निष्ठा उस पार्टी की विचारधारा और कार्यक्रमों के प्रति होती, यथार्थ और सच को समझने की कसौटी भी मेरी अपनी न होकर उस पार्टी की बनाई हुई ही होती, तब मेरा कोई भी संघर्ष दिशाहीन हो जाता, जैसा कि अक़्सर राजनैतिक कार्यकर्ताओं के साथ होता हुआ दिखता है।’
जब बिजनौर के रिक्शा-पुलर पहली बार चंद्रमणि रघुवंशी को अपनी यूनियन का अध्यक्ष चुनने के बाद फूल-मालाओं से लाद कर बिजनौर टाइम्स कार्यालय में उनके पिता के सामने लाए, तो बाबूसिंह चौहान ने उन्हें सिर से पाँव तक तीक्ष्ण दृष्टि से देखा और बोले, “ध्यान रखना, ये ही फूलों के हार कभी तुम्हारे गले में काँटों के हार भी बन सकते हैं। मेरी कामना है कि तुम्हारे जीवन में कभी ऐसा विकट दिन न आए।” और मौन होकर कुछ देर पहले की भाँति अपने काम में लग गए।
चंद्रमणि रघुवंशी इतने बरसों बाद भी अपने पिता के शब्दों को हर सुबह नवीन अर्थ भंगिमा के साथ महसूस करते हैं और बिजनौर टाइम्स की संपादकी के साथ रिक्शा-पुलर समुदाय की चिंता में डूब जाते हैं . . .
◆ प्रो. देवराज
पूर्व अधिष्ठाता, अनुवाद विद्यापीठ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र)
संपर्क : dr4devraj@gmail.com / 7599045113
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अति सामान्य विषय पर ,अति गंभीर विश्लेषण।साधुवाद।खुदा करे ज़ोर ए कलम और ज़्यादा।