घर
डॉ. देवराज
घर से लौटा हूँ
लेकिन लौटा कहाँ हूँ!
घर तो मैं कभी गया ही नहीं
खोजता ज़रूर रहा घर
अपने भीतर अपने बाहर
मगर वह कभी मिला नहीं मुझे
अकेले क्षणों में पिघलते चौराहों पर
आवाज़ों के ऊँचे पहाड़ों पर चढ़ कर
पुकारा मैंने घर को
कि आओ यार!
एक बार तो आ जाओ मेरे पास
मगर वह सुनता तब ना!
ऐसा पत्थर-दिल क्यों हो जाता है घर?
दूर क्यों चला जाता है घर?
किसी-किसी से!!