मेरी माँ
सौरभ कुमार
तुमसे शुरू, तुमसे ख़त्म, अतुलनीय हो जिस प्रेम का बन्धन
अब अट्टहास लगे जितने रहे, बाक़ी सारे के सारे हो बन्धन!
जब कभी और अभी ढूँढ़ता हूँ, मैं हज़ारों रिश्ते और नातों में
दूसरा तुम-सा माँ! मुझे एक न दिखा, इन सारी चाहतों में
पल ही पल में भावुक होता हूँ, यादों में, तुम्हारी कही बातों में
अब ख़ता कर, लाखों मैं स्वयं को ओझल और बिखरा पाता हूँ!
माँ फिर ग़लती का जुर्माना, तुमसे अपने पीठ पर डंडी चाहता हूँ!!
तुमसे शुरू, तुमसे ख़त्म, अतुलनीय हो जिस प्रेम का बन्धन
जता सकूँ या न मिटा सकूँ, भीतर के भीतर बस करूँ मैं क्रंदन!
दुनिया के बीच पड़ाव में, ख़्वाबों को बीनने मैं जिधर निकला हूँ
राह में संग कई होंगे! माँ घाव की दवा तुम, मैं संग तुम्हें चाहता हूँ!
जब शिकायत पेटी में अपार शिकायतें रख और बस करूँ इंतज़ार
माँ! जेहन में झलकें मेरी शिकायतें, तुमसे बात भर में निपटती हज़ार!
चोट, चिंता या हो डूबा सूरज, माँ तुमसे क्षणिक दर्द मैं पी जाता हूँ!!
तुमसे शुरू, तुमसे ख़त्म, अतुलनीय हो जिस प्रेम का बन्धन
माँ के दुलार में सिंचित अल्हड़पन, माँ की गोदी में बीते जीवन!
मिले न दौलत, मिले न शोहरत, मिले बस माँ की गोदी में फ़ुर्सत
प्राण निकले, मगर मेरी माँ मुझसे कभी न रूठे, करूँ मैं वंदन!
ख़्वाब को पूरा करने के वास्ते, मैंने कई चापलूसों को देखा है
कई मुद्दत से मेरे हिस्से का ख़्वाब, मैंने माँ के आँखों में देखा हैं
और आज भी विघ्न में दुआ करती, मैंने माँ को ख़्वाब में देखा है!!