किसान हूँ मैं

15-01-2022

किसान हूँ मैं

सौरभ कुमार (अंक: 197, जनवरी द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

अपने कंधे पर हल लिए
भूख दुनिया की मैं मिटाता हूँ
देखता नहीं धूप और बरसात
भोर होते खेत को निकल जाता हूँ
किसान हूँ मैं, 
सबका ख़्याल मैं रखता हूँ। 
 
सप्ताह में न कोई छुट्टी है
और न ही चिंतामुक्त त्यौहार
दिन सातों रहता हूँ खेतों पर, 
उगाता हूँ सोने के दाने
अपने पसीने से यार
किसान हूँ मैं, 
सबका ख़्याल मैं रखता हूँ।
 
मैं लाड़-प्यार से खेत जोतता हूँ 
फ़सलों पर दाने फलते ही
बेचने को विवश होता हूँ 
पत्नी, बेटा-बेटी के सपने लिए
मैं बाज़ार की मंडी में जाता हूँ
ख़ून पसीने से सींची फ़सलों की
क़ीमत चवन्नी-अठन्नी पाता हूँ
किसान हूँ मैं, 
सबका ख़्याल मैं रखता हूँ।
 
रहते खड़े द्वार पर मेरे
सेठ महाजन बहुतेरे, 
कहते चुकाओ ऋण पुराने
नहीं तो करो नाम खेत ये मेरे
अन्न मैं उगाता हूँ, 
ख़ुद दो वक़्त न खा पाता हूँ
भूख मिटाये जो वही भूखा पड़ा है, देख! 
उस किनारे बिचौलिये का महल खड़ा है 
किसान हूँ मैं, 
सबका ख़्याल मैं रखता हूँ।

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