मेरा गाँव

01-05-2025

मेरा गाँव

उमेन्द्र निराला  (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

जहाँ वृक्ष खड़े हैं, झुककर 
शुद्ध हवा उनकी स्वाभाव में 
चाह उनमें इतना देने कि, 
आदि से अंत सर्वस्व समर्पण। 
वह गाँव मेरा है। 
 
मिट्टी की सौंधी ख़ुश्बू
शुद्ध कर दे अंतर्मन को
मिट्टी की उर्वरा आभार, 
फ़सलों का मुस्कुराना पैदावर
वह गाँव मेरा है। 
 
नदियों की लहरें पवमान धरा सी
चाँदनी की शीतल किरणे 
यह दृश्य देख बिछड़ न पाएँ, 
चकवा-चकवी रात्रि संग हो
वह गाँव मेरा है। 
 
पर्वत भी सर झुकाये
करते हैं, बादल का स्वागत
वर्षा जल धरती का आलिंगन कर, 
चारों तरफ़ हरियाली फैलाएँ
वह गाँव मेरा है। 
 
चाह कर भी विछड़ न पाऊँ
मातृ रूप दिखता है, उसमें 
‘सर्व सुखो’ कि अनुभूति करा दे, 
वह गाँव मेरा है।

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