मैं आज कविता कहती हूँ

15-08-2023

मैं आज कविता कहती हूँ

डॉ. नीता चौबीसा (अंक: 235, अगस्त द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

सागर को आँखों में भर अनबींधे मोती चुनती हूँ।
लो फिर से एक बार मैं आज कविता कहती हूँ॥
 
छोड़ा था जो आस का दीप तुमने बीच चौराहे पर
उसे हथेली पर रख कर मैं अपनी राहें चुनती हूँ।
ड्योढ़ी ड्योढ़ी धूप खिली है पर भीतर अँधियारा है
मुस्कानों के फूलो पे भी शूलों का ही साया है
पनघट पनघट झाँझर बजती कुँए अंधे-बहरे हैं
गंध भरे मन्द समीर पे अब तूफ़ानों के पहरे हैं
जलती बुझती वर्तिका को ओट हाथ की देती हूँ
मरु की नीरवता में मैं ओस के बिंदु बोती हूँ।
लो फिर से एक बार मैं आज कविता कहती हूँ॥
 
तुम चाहते हो मदिर काव्य में प्रणय राग को गाऊँ मैं!!
लेकिन कंकालों के भीतर प्राण कहाँ से लाऊँ मैं?
मिट्टी का तन, मिट्टी का मन, क्षण भंगुर सा यह जीवन
उस पर उन्मादी ज्वाला ने लील लिया सारा उपवन!!
फिर भी मिट्टी के प्यालो को मधुरस से मैं भरती हूँ
गगन-कंठ से खग-पंक्ति-कलरव, मैं शब्दों में बुनती हूँ
ऊसर हुई मन की मरुधरा में अमरबेल को बोती हूँ
ठोस भूमि पर पाँव गड़ा मैं इन्द्रनील को जीती हूँ
लो फिर से एक बार मैं आज कविता कहती हूँ।

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