अकेली स्त्री
डॉ. नीता चौबीसा
बहुत कुछ था जो खो गया!!
भीतर का बाँध क़तरा
दर क़तरा ढह गया!!
एक ज़लज़ला, एक तूफ़ान था
जो मुझसे हो कर गुज़र गया।
तिनके तिनके बिखरा था
उम्मीदों का घोंसला,
चारों तरफ़ के तमस में,
खड़ी हुई थी बिखरे नीड़ के
मात्र अवशेष तिनके को अपने
कोमल हाथों में थामे
एक निपट अकेली स्त्री!!
और फिर से बुनने लगी
बिन क्षण भर गँवाए
परत दर परत
नई आशाओं का नीड़!!
भीतर के उजियारे को थामे
एक निपट अकेली स्त्री।
स्त्री, तुम्हारा होना स्वयम् में
सचमुच ही एक
पूरा का पूरा नीड़ है!!
आस, विश्वास, हिम्मत
और जिजीविषा का नीड़!!
बिखरे हुए चौराहों में,
थमते हुए रास्तो में,
पगडंडियों की तपास है
एक निपट अकेली स्त्री!!
जीवनयात्रा में स्वयं को
पगडंडी कर देती स्त्री
गुज़ार लेती है ख़ुद पर से
राही हुए समय का शिवत्व!!
शिवांगी भैरवी है स्त्री!!
शून्य हुई शून्य से अभिसार को
आतुर एक निपट अकेली स्त्री!!
ज्ञात से अज्ञात तक अपने
भीतर समाहित लोह
पुरुषत्व को सहेजती
सहस्त्र बाहुओं से उकेरती
एक से बहुस्यामि होती स्त्री!!
रोज़ नवीन मेढ़ें गढ़ती
पगडंडियाँ रचती स्त्री
अँधेरों में अशेष उजालों को
तपासती, टटोलती
आँचल में हौंसलो की गाँठ बाँधती
चीर पथिक हुई
एक निबट अकेली स्त्री!!!
सुनो मनु प्रलयकाल में
तुम्हारी सृष्टि हेतु
इड़ा से श्रद्धा हुई एक निपट
अकेली स्त्री ही काफ़ी है-!!!