खिड़की
सुमित दहियातुम्हारे जाने के बाद
जब मैं खिड़की खोलूँगा
तो उन पहाड़ों के बीच पसरा
तुम्हारा पुराना कुँवारापन –
सबसे पहले भीतर आएगा
और तुम्हारे शरीर पर फैले –
मेरे मानसिक परिणाम
इक शृंखला निर्मित करेंगे
उस अनंत प्रेम का बहाव व्याकुल होगा
मेरी क़लम का प्रत्येक छोर
निरंतर तुम्हें पुकारेगा, चीख़ेगा
ज़ार-ज़ार रोयेगा
बिजली की तारों में फँसी कोयल की भाँति
मेरी आवाज़ में विलाप होगा
भारीपन होगा
और तुम्हारे अंदर पनपकर
आकार लेने वाली विक्षिप्तता का भी
मैं गुनाहगार नहीं बनना चाहता
इसलिए सुनो तुम कभी मत जाना
न मैं कभी खिड़की खोलूँगा॥