जो पीछे छूट गया है
ईश कुमार गंगानियाअजीब जुनून था
ग़ज़ब की जल्दबाज़ी थी
राजधानी ट्रेन-सा मैं
दौड़े जा रहा था
अपनी ही पटरी पर
बस दौड़े जा रहा था
इस सरपट दौड़ में
खिड़की के बाहर मेरा
क्या-क्या पीछे छूट रहा था
मुझे नहीं मालूम
मालूम तो तब हो न
जब नज़रें कहीं टिक पाई हों
मुझे तो ठीक से
यह भी नहीं मालूम कि
रास्ते में कौन-कौन से
स्टेशन आकर चले गए
और कौन-से आने वाले हैं
जिनसे होकर मुझे गुज़रना है
किसी की उपस्थिति का
कोई एहसास ही नहीं मुझे
मुझे यह भी नहीं मालूम कि
ट्रेन में मैं दौड़ रहा हूँ या
ट्रेन मुझमें, या हम दोनों
एक-दूसरे में दौड़े जा रहे हैं
सवाल मेरा नहीं है
सवाल ट्रेन का भी नहीं है
सवाल उस दौड़ का है जिसमें
मेरा बहुत कुछ छूट गया है
अब सवाल इतना-सा है कि
जो पीछे छूट गया है, उसे पा लेना है।