बच्चों के साथ रहिए। धींगामस्ती कीजिए, फिर देखिए। बालकविता तैयार! - प्रभुदयाल श्रीवास्तव

17-01-2019

बच्चों के साथ रहिए। धींगामस्ती कीजिए, फिर देखिए। बालकविता तैयार! - प्रभुदयाल श्रीवास्तव

ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश'

मेरी रचना प्रक्रिया - "बच्चों के साथ रहिए। धींगामस्ती कीजिए, फिर देखिए। बालकविता तैयार!" - प्रभुदयाल श्रीवास्तव

 

बच्चों की बालसुलभ कविता लिखने में प्रभुदयाल श्रीवास्तव का नाम किसी का मोहताज नहीं है। पेशे से इंजिनियर होते हुए भी आप ने कई बालकविता यानी बालगीत लिखे हैं। आप के बालगीत बहुत सुन्दर व गेय होते हैं। इन्हें बच्चों के साथसाथ बड़े भी गुनगुनाने से नहीं चूकते।

मैंने प्रभुदयाल श्रीवासत्व जी से एक मुलाक़ात में यह जानने का प्रयास किया है कि वे बालगीत कैसे लिखते हैं? इस के लिए क्या करते हैं? तब कहीं जा कर एक बालगीत तैयार होता है। आइए, आप भी देखें, प्रभुदयाल श्रीवास्तव की रचना प्रक्रिया-

ओमप्रकाश क्षत्रिय

ओमप्रकाश क्षत्रिय 

आप बच्चों के कवि है। बचपन को किस तरह देखते हैं?

प्रभुदयाल श्रीवास्तव

बचपन के दिन बड़े सुहाने होते हैं परन्तु बचपन की स्मृतियाँ इतनी मीठी होती हैं कि इसकी तुलना दुनियाँ भर कि सारी मिठाइयों से भी नहीं की जा सकती। इसका विस्तार तो असीम है। जितना भी याद करोगे ये यादें हनुमान जी की पूँछ कि तरह लम्बी होती जाएँगी।

ओमप्रकाश क्षत्रिय

ये यादें बड़ी सुहानी होंगी?

प्रभुदयाल श्रीवास्तव  

जी हाँ! आम चुराते कब पकड़े गये थे? कक्षा में कब ऊधम करते हुए मास्टरजी ने कान पकड़ा था? कब मैटनी-शो देखने स्कूल से गोल मार कर गए थे? ऐसी सैकड़ों बातें व यादें हैं जो हमें आयु बढ़ते जाने के साथ-साथ याद आती हैं।

ओमप्रकाश क्षत्रिय

इन यादों को किस रूप में देखते हो?

प्रभुदयाल श्रीवास्तव

ये यादें ही हमें ऊर्जा भी देती हैं। पेट पालने वाले साधारण लोग साधारणतया रोटी-रोज़ी में अपना जीवन व्यतीत क़र देते हैं। परन्तु संवेदनशील लोग इस ऊर्जा का उपयोग सृजनात्मक कार्यों में कर के अपने और अपने समाज का हित संवर्धन करने में अग्रसर होते हैं। साहित्य की ओर रुझान होने पर लेख, कविता, कहानियों द्वारा समाज को कुछ देने का प्रयास करते हैं।

ओमप्रकाश क्षत्रिय

आप बाल-साहित्य को किस रूप में देखते हैं?

प्रभुदयाल श्रीवास्तव

बाल-साहित्य लिखना साधारणतया कठिन माना जाता है। यह कठिन भी है। किन्तु आप बड़प्पन छोड़ कर बचपने में लौट आते हैं तो शायद बचपन सरलता से बाल-साहित्य के रूप में उद्घाटित होने लगता है। बचपन में लौटने के लिए आप को बच्चों के साथ रहना पड़ेगा। बच्चे के साथ बच्चा बनना पड़ेगा। उन के जैसी गतिविधियाँ करने पड़ेंगी। धूमधड़ाका और मस्ती भी करना पड़ेगी। फिर देखिए आप के दिमाग़ में बाल रचनाएँ कैसे जन्म लेती हैं।

ओमप्रकाश क्षत्रिय    

आप यह कहना चाहते हैं कि रचनाएँ सप्रयास लिखनी पड़ती हैं?

प्रभुदयाल श्रीवास्तव  

रचनाएँ सयास नहीं लिखी जा सकती। यह कहना तो मैं एकदम उचित नहीं मानता। किन्तु बाल-कविताएँ- बच्चों की किसी क्रिया विशेष या भाव-भंगिमा अथवा अदा को देख कर अथवा स्मृति में कोई नई-पुरानी गुदगुदाने वाली यादों या बातों के याद आने पर अनायास ही मन में कविता उपज पड़ती हैं। दो-चार पंक्तियाँ दिमाग़ में आते ही पूरी कविता का ढाँचा तैयार होने लगता है। यह कहना भी एकदम उचित नहीं है कि सारी कविता अनायास ही अपने-आप तैयार हो जाती है। मन में भाव अनायास ही आते हैं।शिल्प, छन्द और लय के लिए आप को काट-छाँट तो करना ही पड़ेगी। कुछ लोग कहते हैं कि कविता सयास नहीं लिखी जा सकती। कुछ हद तक यह सही भी है। किन्तु क्या सभी साहित्य के पुजारी कबीर दास बन सकते हैं? जिन के एक बार मुँह से निकले शब्द कविता बन गए। तुलसीदासजी ने रामचरितमानस लिखते समय चौपाइयों क़ी मात्राएँ मिलाई होंगी? बुंदेलखंड के आशु कवि ईसुरी क़ी फांगें देश क़ी अमूल्य धरोहर हैं। अपनी प्रेमिका रजऊ को देख कर वे तुरंत चौकड़ियाँ कह देते थे। हालाँकि यह एक तरफ़ा प्यार कुछ दिनों में ही शारीरिक न रह कर अलौकिक हो गया। तब उन की यह चौकड़ियाँ अमर हो गईं।

ओमप्रकाश क्षत्रिय    

आप मानते हैं कि प्रतिभा जन्मजात होती हैं?

प्रभुदयाल श्रीवास्तव

जब भगवान क़लम पकड़वा कर लिखवाने लगता है तो वे निराला, प्रसाद, दिनकर हो सकते हैं। हालाँकि निराला जी के बारे में यह पढ़ा है कि वे रात को जब लिखने बैठते थे तो ढेर सारे काग़ज़ रद्दी क़ी टोकरी के हवाले करते जाते थे। जब तक उन के मन को भाने वाली रचना नहीं बन जाती थी, वे लिख-लिख कर, काग़ज़ को फाड़ कर फेंक देते थे। इस का मतलब यही है कि लिखना सप्रयास ही होता है। यदि रुचि हो तो कोई भी लिख सकता है।मैं मूलतः व्यंग्यकार रहा हूँ। शासकीय सेवा में रहते हुए और समयाभाव के कारण लिखने-छपने का बहुत कम अवसर मिला। परन्तु कुछ वर्ष पूर्व ऑफ़िस में काम करते हुए लिखने का प्रयास करता रहा हूँ। लेकिन सेवानिवृति के बाद तो सारा समय बच्चों के साथ बीतना और बाल-साहित्य लिखना प्रारंभ किया है।ओमप्रकाश क्षत्रिय- आप की पहली कविता कब और किस पत्रिका में छपी थी?प्रभुदयाल श्रीवास्तव- सन १९६० में पहली कविता मेरी शाला क़ी पत्रिका "त्रिपथगा" में छपी थी। उस वक़्त में, मैं अपनी शाला के कार्यक्रमों में भाग लेता था। वहाँ अपनी लिखी कविताएँ ही पढ़ता था। दूसरे साथी सुप्रसिद्ध कवियों क़ी रचनाएँ पढ़ते और मैदान मार लेते थे। परन्तु मैं अपनी लिखी कविताओं सुनाने पर ही अड़ा रहा। मैं ने इस की चिंता नहीं की कि मुझे पुरस्कार मिलेंगे अथवा नहीं।

ओमप्रकाश क्षत्रिय

कोई रोचक क़िस्सा या याददाश्त जो आप सुनाना चाहते हैं?

प्रभुदयाल श्रीवास्तव

मेरी एक बाल-कविता देखिए। जिस का शीर्षक है- "नहीं सहूँगा गधा शब्द अब"। यह कविता मेरी शिकायत से थी –

नहीं सहूँगा गधा शब्द अब


देखो अम्मा उस ने मुझ को,
फिर से गधा कहा।
मेरे सिर पर लगे कहीं क्या,
गधे सरीखे कान?
लदा पीठ पर किसने मेरी,
देखा है सामान?

ढेंचू ढेंचू मुझे रैंकते,
किस ने कहाँ सुना?
देखा है क्या अम्मा तुम ने,
मुझ को चरते घास?
गधे सरीखा किस ने देखा,
मुझ को खड़ा उदास?

झाड़ दुल्लती मैं ने बोलो,
कहाँ किसे पटका?
बोलो किस मालिक से मुझ को,
पड़ी लट्ठ की मार?
बोलो किस धोबी का मैंने,
खूँटा दिया उखाड़?

बोलो कहाँ सताया किस को,
किसे कहाँ दचका?
ज़रा ठीक से देखो तो
मैं, हूँ बालक नादान।
गधा कहाँ? मैं तो हूँ कल का,
धीर वीर इंसान।

नहीं सहूँगा "गधा" शब्द अब,
अब तक बहुत सहा।

घर के एक बड़े बच्चे ने दूसरे छोटे बच्चे को कहा, "तुम गधे हो! दूसरे ने फ़ौरन अपनी मां से शिकायत क़ी। देखो मम्मी! ये फिर मुझे गधा कह रहा है।" अब यहाँ कविता क़ी रूपरेखा तैयार हो गई। और कवि ने बच्चा बन कर गधा नहीं होने के सारे सबूत पेश कर दिए। छन्द भी तैयार शब्द संयोजन भी तैयार। मनोरंजन तो है ही। जो बाल-कविता क़ी अहम शर्त है।

ओमप्रकाश क्षत्रिय

आप ने बहुत ही सुंदर कविता लिखी है। कोई दूसरा उदहारण बताइए?

प्रभुदयाल श्रीवास्तव

लीजिए- दूसरी कविता देखिए।

वरदानों की झड़ी

भोले बाबा के नंदी के
कहा कान में जाने क्या!
मैं ने पूछा, तो वह बोली,
गुप्त बात मैं बोलूँ क्यों?
नंदी जी से जो बोला है,
भेद आप पर खोलूँ क्यों?

मैं ने तो उन से जो माँगा,
तुरंत उन्होंने मुझे दिया।
शिव मंदिर में अक्सर बच्चे,
नंदी जी से मिलते हैं।
उन्हें देख कर नन्हें मुखड़े,
कमल सरीखे खिलते हैं।

मन की बात कान में उन के,
कहते, आता बहुत मज़ा।
बातें अजब-गज़ब बच्चों की,
सुन कर नंदी मुस्काते।
माँगों वाले ढेर पुलिंदे,
शंकरजी तक ले जाते।

फिर क्या! शिवजी वरदानों की,
झटपट देते झड़ी लगा।

ओमप्रकाश क्षत्रिय  

 इस कविता का प्लाट कहाँ से मिला आप को?

प्रभुदयाल श्रीवास्तव

मैं अक्सर अपने पोते-पोतियों को ले कर पास में ही बने शिव मंदिर जाता हूँ। मेरा छोटा पोता नंदीबाबा के कान में कुछ बात धीरे से, हर बार कहता था। जब मैं पूछता हूँ कि अमित आप ने क्या माँगा नंदी से? वह नहीं बताता। बस, फिर क्या है? मेरी बाल-कविता तैयार हो गई। एक बैठक में, दसपन्दरह मिनिट में यह कविता बन गई थी। एक-दो बार ठीक से पढ़ा। एक-दो शब्द बदलने पड़े। कविता में कहीं सीधा उपदेश भी नहीं है। किन्तु यह सन्देश तो जा रहा है कि बच्चों में भी ईश्वर के प्रति आस्था होती है।

ओमप्रकाश क्षत्रिय

पहली कविता में क्या सन्देश था?

प्रभुदयाल श्रीवास्तव

पहली कविता में एक छुपा हुआ सन्देश है कि हम बड़े लोगों को छोटे बच्चों को गधा नहीं कहना चाहिए।

इतना कह कर आदरणीय प्रभुलाल श्रीवास्तव को ज़रूरी काम आ गया। इसलिए वे बोले, "अब शेष दूसरी मुलाक़ात में बाते होगी।"

दूसरी मुलाक़ात

ओमप्रकाश क्षत्रिय

आप बच्चों के बीच रह कर अपनी कविताएँ तलाश लेते हैं?

प्रभुदयाल श्रीवास्तव

जी हाँ। बच्चों के साथ रहते हुए उन की छोटी-छोटी गतिविधियों, वार्तालापों या नटखटपन से ही कविताएँ निकल पड़ती हैं। अगर बच्चों के बीच न रहें तो बच्चों की कविताएँ जन्म नहीं ले पाती हैं।

ओमप्रकाश क्षत्रिय

तब आप का वास्तविक बाल-लेखन कब आरम्भ हुआ?

प्रभुदयाल श्रीवास्तव

बाल-साहित्य का लेखन मैंने २००६-२००७ के लगभग प्रारम्भ किया था। पहले तो व्यंग्य ही लिखता था। देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में मेरे व्यंग्य प्रकाशित हुए हैं। नागपुर से प्रकाशित होने वाले लोकमत समाचार में लगभग तीन वर्ष तक एक स्तम्भ तीर-तुक्का लिखा। लगभग १०० रचनाएँ इस में स्तम्भ में प्रकाशित हुईं। दैनिक भास्कर, राज एक्सप्रेस, नवभारत, जबलपुर एक्सप्रेस के अलावा अन्य अख़बारों में ख़ूब लिखा। व्यंग्य तो १९८६ से प्रकाशित होने शुरू हो गए थे। यह तब सम्भव हुआ जब प्रमोशन के चार साल ऑफ़िस में रहा। अन्यथा फ़ील्ड की नौकरी में तो यह सब सम्भव नहीं था।

ओमप्रकाश क्षत्रिय

बाल-साहित्य में सब से पहले आप कहाँ छपे?

प्रभुदयाल श्रीवास्तव

बाल-साहित्य में भी सब से पहले मुझे महेश सक्सेनाजी ने "अपना बचपन" में प्रकाशित किया था। मैं तो इस पत्रिका को जानता तक नहीं था। एक रचना "रोटी" किसी अन्य पत्रिका में भेजी थी। उस पत्रिका ने उसे तो नहीं छापा, हाँ महेशजी को जाने कहाँ से वह रचना मिल गई और उन्होंने प्रकाशित क़र "अपना बचपन" मेरे पास भेज दी।
ओमप्रकाश क्षत्रिय    आप ने वेब पत्रिका में अपनी पहुँच कैसे बनाई। आप जैसी उम्र के लोग नेट से दूर ही रहते हैं।

प्रभुदयाल श्रीवास्तव

मेरा जवाब सुन कर आप हँसें… ऐसा नहीं है। मैं बालगीत ख़ूब लिख रहा था। पर उनका करते क्या? यह समझ नहीं आ रहा था। तब की बात है… मैं एक कार्यक्रम में दिल्ली गया था। मेरे कमरे एक साहित्यकार ठहरे थे। उन्होंने कुछ वेबपत्रिकाओं के नाम पते बताएँ। मुझे कम्प्यूटर की भी थोड़ी-बहुत जानकारी थी। फिर प्रवक्ता, सृजनगाथा, रचनाकार, वेबदुनिया जैसे ई-पत्र-पत्रिकाओं में बालगीत, कविता, कहानियाँ प्रकाशित होने लगीं। वेबदुनिया, सृजन गाथा और प्रवक्ता इत्यादि ने बच्चों के लिए अलग से पैन खोलकर मेरी रचनाओं का अलग से पन्ना दिया।

ओमप्रकाश क्षत्रिय

आप वेबदुनिया की किस नज़रिए से देखते हैं?

प्रभुदयाल श्रीवास्तव

रचनाएँ डायरी में लिखी पड़ी रहें और खो जाएँ। इस से तो अच्छा हैं कि कहीं वेबपत्रिकाओं में सुरक्षित रहें। साहित्य शिल्पी, कविता कोश, साहित्यकुंज, लेखनी, भारत दर्शन, अनुभूति इत्यादि कई वेबपत्रिकाओं में मैं ने बाल-साहित्य सुरक्षित रख छोड़ा है।

ओमप्रकाश क्षत्रिय 

प्रिंट माडिया आप की रचनाएँ कहाँ-कहाँ छपी हैं?

प्रभुदयाल श्रीवास्तव

प्रिंट मीडिया में तो जैसा आप को पता ही है मेरी रचनाएँ देवपुत्र, बच्चों का देश, बालप्रहरी, बालवाणी, बलहंस, बालभारती, नेशनल दुनिया, जनसत्ता, मप्र जनसंदेश, टाबरटोली, साहित्यसमीर इत्यादि में प्रकाशित हो ही रही हैं। अभी कुल मिला कर बाल-कविताओं की दो ही किताबें प्रकाशित हो सकी हैं। हालाँकि और किताबें प्रकाशन की तैयारी में है।
ओमप्रकाश क्षत्रिय    आप बच्चों का स्तर कैसा मानते हैं। यानी वे कैसी रचनाएँ पसंद करते हैं?
प्रभुदयाल श्रीवास्तव    आजकल बच्चे बड़ों से अधिक समझदार हैं। वे हम से ज़्यादा जानते हैं इसलिए उन्हें कविताओं के द्वारा उपदेश नहीं सुहाते। उपदेश देना भी नहीं चाहिए। वे नकार देंगे। हाँ, बात-बात में सन्देश- जिसमें मनोरंजन हो, सीख हो, वे बच्चे ग्राह्य कर लेंगे। मेरा एक पोता- रूद्र, रोज़ कहानी की ज़िद करता है। एक के बाद दूसरी, तीसरी, चौथी कितनी भी सुनाओ। उस का मन नहीं भरता। एक और की रट लगी रहती है। हार कर मैंने कौए की कहानी सुनाई।एक कौआ था। प्यास था। पानी की तलाश में उड़ा। किन्तु उसे पानी नहीं मिला।..कई दिनों से पानी नहीं गिरा तो घड़ा भी नहीं भरा। कौआ उड़ ही रहा है। तीन साल हो गए कौए को अभी तक पानी वाला घड़ा नहीं मिला।…वह इंदौर से फोन से पूछता। दादाजी कौए का क्या हुआ? मेरा जबाब…. अभी तक पानी नहीं मिला। मज़ा का मज़ा मनोरंजन का मनोरंजन।
ओमप्रकाश क्षत्रिय    आप ने केवल बालगीत ही लिखे है या कहानियाँ भी लिखी हैं।
प्रभुदयाल श्रीवास्तव    मैं जब आठवीं कक्षा में पढ़ता था, तब की बात है। मेरा एक परिचित परिवार था। परिवार की बिटिया जब दौड़ में भाग लेती थी तब दो सौ मीटर या शायद चार सौ मीटर की दौड़ होती थी। उस दौड़ में उस के अब्बू साथ में दौड़ते थे। साथ में चिल्लाते जाते- गुलशन दौड़ो!उसी याद में मैंने एक कहानी गुलशन लिखी थी। वह कहानी "बच्चों का देश" पत्रिका में छपी थी। मेरे जन्म स्थान दमोह का मोहल्ला है। वह कुछ पिछड़ा ही है। मेरे घर के आसपास कुछ यादवों के घर हैं। जो गाय-भैंस आदि पालते हैं। दूध बेचते हैं। वहाँ एक प्यारी-सी एक बिटिया रहती थी। वह बिटिया अपने भाई को खिलाती थी और गाती थी, "मेरा भैया रोवन लगा रूं रूं रुं।" लड़की का नाम लम्पु था। बस फिर क्या था? लम्पु और गुलाबी तैयार हो गई। यह कहानी "बच्चों का देश" और "नेशनल दुनिया" में छपी थी।
ओमप्रकाश क्षत्रिय    

प्रभुदयाल श्रीवास्तव    आप जीवन से ही रचना का प्लाट यानी कथानक चुनते हैं?जी हाँ। जीवन का भोगा हुआ सच, लिखने में बहुत काम आता है। उस में बनावट नहीं होती। सत्य दिमाग़ से उतर कर हाथ के द्वारा काग़ज़ अथवा कम्प्यूटर पर साकार हो जाता है। एक उदाहरण देखिए। यह गीत वहीं से लिया है –आधी रात बीत गईआठ लोरियाँ सुना चुकी हूँ,परियों वाली कथा सुनाई।आधी रात बीत गई बीत भैयाअब तक तुमको नींद न आई।थपकी दे दे हाथ थक गये,कंठ बोलबोल कर सूखा।अब तो सो जा राजा बेटा,तू है मेरा लाल अनोखा।चूर चूर मैं थकी हुई हूँ,सचमुच लल्ला राम दुहाई।आधी रात बीत गई बीत भैया,अब तक तुमको नींद न आई।सोये पंख पखेरू सारे,अलसाये हैं नभ के तारे।करें अँधेरे पहरेदारी,धरती सोई पैर पसारे।बर्फ बर्फ हो ठंड जम रही,मार पैर मत फेंक रजाई।आधी रात बीत गई बीत भैया,अब तक तुमको नींद न आई।झपकी नहीं लगी अब भी तो,सुबह शीघ्र न उठ पाओगे।यदि देर तक सोये रहे तो,फिर कैसे शाला जाओगे।समझा समझा हार गई मैं,बात तुम्हें पर समझ न आई।आधी रात बीत गई भैयाअब तक तुमको नींद न आई।
ओमप्रकाश क्षत्रिय    आप ने कभी शादी-ब्याह आदि को देख कर भी कोई रचना लिखी है?
प्रभुदयाल श्रीवास्तव    जी हाँ, लिखी है। देखिए-जंगल की बातजंगल के सारे पेड़ों ने,डोंडी ऐसी पिटवा दी है।बरगद‌ की बेटी पत्तल की,कल दोना जी से शादी है।पहले तो दोनों प्रणय-युगल,बट के नीचे फेरे लेंगे।संपूर्ण व्यवस्था भोजन की,पीपलजी ने करवा दी है।जंगल के सारे वृक्ष लता,फल-फूल सभी आमंत्रित हैं।खाने-पीने हँसने गाने, कीपूर्ण यहाँ आज़ादी है।रीमिक्स सांग के साथ यहाँ,सब बाल डांस कर सकते हैं।टेसू का रंग महुए का रस,पीने की छूट करा दी है।यह आमंत्रण में साफ़ लिखा,परिवार सहित सब आयेंगे।उल्लंघन दंडनीय होगा,यह बात साफ़ बतला दी है।वन प्रांतर का पौधा-पौधा,अपनी रक्षा का प्रण लेगा।इंसानों के जंगल-प्रवेश,पर पाबंदी लगवा दी है।यदि आदेशों के पालन में,इंसानों ने मनमानी की।फ़तवा जारी होगा उन पर‌,यह‌ बात‌ साफ़ जतला दी है।
ओमप्रकाश क्षत्रिय    आप की रचनाएँ बचपन पर लिखी होती है?
प्रभुदयाल श्रीवास्तव    ईश्वर की असीम कृपा है कि मैं ने अपना बचपन सारा का सारा अपने भीतर बचा रखा है। कल की बातें भले ही भूल जाऊँ पर बचपन के एक-एक लम्हें अभी भी सजीव आँखों के सामने हैं। ये लोरी उसी की जीता जगाता उदाहरण है। बस इतना ही बहुत है आप के लिए।क्यों न रस्ता मुझे बतातीसुबह-सुबह से चें-चें चूँ-चूँ,खपरैलों पर शोर मचाती।मुर्गों की तो याद नहीं है,गौरैया थी मुझे जगाती।चहंग-चंहंग छप्पर पर करती,शोर मचाती थी आँगन में।उस की चपल चंचल चितवन,अब तक बसी हुई जेहन में।उठ जा लल्ला, प्यारे पुतरा,ऐसा कहकर मुझे उठाती।आँगन के दरवाज़े से ही,भीतर आती कूद-कूद कर।ढूँढ-ढूँढ कर चुनके दाने,मुँह में भरती झपट-झपट कर।कभी मटकती कभी लपकती,कत्थक जैसा नाच दिखाती।आँखों में तुम बसी अभी तक,पता नहीं कब वापस आओ।मोबाइल पर बात करो या,लेंड लाइन पर फोन लगाओ।किसी कबूतर के हाथों से,चिट्ठी भी तो नहीं भिजाती।तुम्हीं बताओ अब गौरैया,कैसे तुम वापस आओगी।छत, मुंडेर, खपरैलों पर तुम,फिर मीठे गाने गाओगी।चुपके से कानों में आकर,क्यों न रस्ता मुझे बताती।जादू की पुड़ियागुड्डा राजा भोपाली हैं,गुड़िया शुद्ध जबलपुरिया।गुड्डा को पापा लाये थे,भोजपाल के मेले से।गुड़िया आई जबलपुर के,सदर गंज के ठेले से।।गुड्डा को आती बंगाली,गुड़िया को भाषा उड़िया।गुड्डा खाता रसगुल्ले है,गुड़िया को डोसा भाते।दही बड़े जब बनते घर में,दोनों ही मिलकर खाते।दोनों को ही अच्छी लगती,माँ के हाथों की गुझिया।गुड्डा को इमली भाती है,गुड़िया को हैं आम पसंद,माँ के हाथों के खाने में,दोनों को आता आनंद।दोनों कहते माँ के हाथों,में है जादू की पुड़िया।ऊपर के बालगीत बिना उपदेश के अपने सन्देश दे रहे हैं। पहला गीत जंगल की आज़ादी पर है। पर्यावरण का मौन सन्देश दे रहा है। हरे-भरे जंगल में पेड़ों की मस्ती अपने आप सब कुछ कह रही है। दूसरे गीत में चिड़ियों की पूछ-परख है। न तो किसी चिड़िया ने फोन से बात की है, न ही मोबाइल से सूचना दी है। कबूतर के हाथों से चिट्ठी भी नहीं भेजी है। न ही कैसे आओगी यह तरीक़ा सुझाया है। कोई उपदेश नहीं सिर्फ सन्देश हैं। तीसरा बालगीत माँ के हाथों के खाने का आनंद है। जादू की पुड़िया है माँ के हाथों में। कहीं के भी लोग हों, कैसा भी खाना खाते हों, परन्तु माँ के हाथ का खाना! अलग आनंद है उस का।

    कह वे हँसने लगे और हम ने अपनी कागज़ कलम उठा ली।

 

 

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