पिता ने शादी तय होते ही एक निवेदन किया था, जिसे लड़के ने मान लिया था।
"बेटा! एक ही विनती है," बारात का स्वागत करते हुए पिता ने याद दिलाया तो दुल्हे ने कहा, "आप निश्चिन्त रहिए। मुझे याद है।"
"पिता हूँ बेटा। दिल नहीं मनाता है इसलिए याद दिला रहा हूँ," फेरे आरम्भ होते ही पिता ने हाथ जोड़ कर वही बात दोहराई तो उन की पत्नी चुप न रह सकी, "सुनो जी! आप बारबार यही बात क्यों दोहरा रहे हैं। जब उन्होंने कहा दिया है कि....."
"तू नहीं जानती भागवान। पिता का दिल क्या होता है? यह हमारी लाडली बच्ची है। मैं नहीं चाहता हूँ कि उसे ससुराल में कोई अपमान सहन करना पड़े।" पिता भावुकता में कुछ और कहते की पत्नी बोल उठी, "मैं उसकी माँ हूँ। भला! मैं क्यों नहीं जानूँगी। मगर, आप ... "
यह सुन कर पिता खींज उठे, "तुझे क्या पता। कब, कहाँ, कैसी बातें करनी चाहिए? तुझे तो ठीक से बात करनी भी नहीं आती।"
"क्या!" पत्नी ने आसपास देखते हुए लोगों की निगाहों से बच कर अपने आँसू पोंछ लिए।
"मैंने दामादजी से कह दिया। मेरी बच्ची से भले ही ख़ूब काम करवाना। मगर ग़लती हो तो दूसरे के सामने जलील मत करना। उस का दिल मत दुखाना। जब कि यह बात तुझे कहनी चाहिए थी," पिता ने तैश में कहा तो पत्नी ने चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी। वह शादी में कोई बखेड़ा खड़ा करना नहीं चाहती थी।
मगर जब विदाई के समय पिता ने वही बात दोहरानी चाही तो बेटी ने एक चिट्ठी निकाल कर पिता की ओर बढ़ा दी। जिस में लिखा था, "पापा! मम्मी भी किसी की बेटी है। काश! आप भी यह समझ पाते।"
यह पढ़ कर पिता ज़मीन पर गिरते-गिरते बचे और माँ के बंधनमुक्त हाथ, आज पहली बार आशीर्वाद के लिए उठे थे और सजल आँखे आसमान की ओर निहार रहीं थीं।