इंक्रीमेंट
डॉ. अवनीश सिंह चौहान
जनवरी माह में कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। एक निजी विश्वविद्यालय में कार्यरत डॉ. विमल अपनी सैलरी बढ़वाने के लिए अपनी वार्षिक उपलब्धियों को रिक्वेस्ट लेटर में लिख रहे थे। उसी समय उनके सहकर्मी विजय बाबू उनसे मिलने आये।
विजय बाबू ने कहा, “दिन-भर काम में लगे रहते हो? कुछ आराम भी कर लिया करो, प्रोफ़ेसर साब।”
डॉ विमल बोले, “एक वर्ष और बीत गया, मित्र। मेरा इंक्रीमेंट लगने का समय आ गया है। इसलिए कुलपति जी के लिए चिट्ठी बना रहा हूँ। कुछ ज़रूरी डॉक्यूमेंट्स भी इसके साथ जोड़कर भेजने हैं।”
“इतनी मोटी फ़ाइल बनाने का क्या फ़ायदा? आपका वार्षिक इंक्रीमेंट एक हज़ार रुपये ही होता आया है और इतना ही फिर होना है,” विजय बाबू तपाक से बोले।
इतना सुनते ही डॉ. विमल कुछ पल के लिए मौन हो गए। फिर उन्होंने गहरी साँस ली। उदासी उनके मौन पर भारी पड़ रही थी।