हमारे राम की 18 कहानियाँ: 7. राम की मंत्री परिषद

01-03-2024

हमारे राम की 18 कहानियाँ: 7. राम की मंत्री परिषद

शशि महाजन (अंक: 248, मार्च प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

राम कुटिया से बाहर चहलक़दमी कर रहे थे। युद्ध उनके जीवन का पर्याय बनता जा रहा था, वह प्रतिदिन हो रही इस हिंसा से विचलित हो रहे थे, परन्तु उपाय क्या था? जंगल में राक्षसों ने उत्पात मचा रखा था, और यह सब इसलिए नहीं था, क्योंकि वन में भोजन अथवा जल की कमी थी, अपितु यह राक्षस इन वनवासियों को मानसिक रूप से अपने अधीन करना चाहते थे, इसलिए उनके आक्रमण का न कोई समय होता, न कोई प्रयोजन। आरम्भ में राम को लगा था कि लगातार कई बार पराजित होने के बाद, वह स्वयं थक जायेंगे और वनवासियों को अकारण कष्ट पहुँचाना बंद कर देंगे, परन्तु राक्षसों की न जाने प्रतिदिन कहाँ से नई टोलियाँ आ रही थीं, जैसे जीवन में उत्तेजना की कमी होने के कारण, हर सुबह नयी चुनौती की खोज में चले आते हों। 

सीता ने बाहर आकर कहा, “चलिये भीतर भोजन कर लें।” 

राम ने सीता की ओर देखा जैसे उनकी दृष्टि उन्हें न देखकर कहीं और स्थिर हो। 

लक्ष्मण जानते थे राम किन प्रश्नों से उलझ रहे थे, “भ‍इया, पहले भोजन कर लीजिए, फिर आचार्य देवदत के आश्रम चलकर इस विषय पर चर्चा कर लेंगे,” लक्ष्मण ने कहा। 

सीता देख रही थी, राम का मन भोजन में नहीं है, वह जानती थी, राम स्वयं का कष्ट आसानी से झेल सकते हैं, परन्तु मानवता के कष्ट से जुड़े प्रश्न उन्हें सदा व्यथित कर जाते हैं, इसलिए भोजन ठीक से कर लेने का आग्रह निरर्थक था। 

भोजन समाप्त होते ही राम जाने को तत्पर हुए। सीता ने कहा, “यूँ तो चाँदनी रात है, फिर भी एक मशाल राह के लिए रख लेती हूँ।” 

तीनों को इस प्रकार अचानक आया देख, आचार्य उठ खड़े हुए। आचार्य की पत्नी आसन ले आई और उनका एक शिष्य जल ले आया। 

तीनों ने आचार्य के चरण स्पर्श करने के पश्चात अपना स्थान ग्रहण किया। 

“आचार्य, आशा है इस समय आकर मैंने आपके संध्या वंदन में बाधा नहीं डाली होगी,” राम ने कहा। 

आचार्य मुस्कुरा दिये, “मेरा संध्या वंदन राम के प्रश्न से बड़ा नहीं हो सकता।” 

राम मुस्कुरा दिये, “फिर तो आप यह भी जानते होंगे मेरा प्रश्न क्या है।” 

“जानता हूँ, और उसके उत्तर पर विचार भी किया है, जानता था, राम हिंसा का कारण अवश्य जानना चाहेंगे, और क्योंकि मेरी रुचि मस्तिष्क के अध्ययन में है, तुम उत्तर की खोज में यहाँ मेरे पास ही आओगे,” आचार्य ने कहा। 

राम ने श्रद्धा से हाथ जोड़ दिए, तो आचार्य ने फिर कहा, “राम मनुष्य की भावनायें, तर्क शक्ति, कल्पना शक्ति शेष प्राणियों से अधिक विकसित है, परन्तु यह तीनों कई वर्षों तक आपस में एक होकर काम नहीं कर पाते, इस क्षतिपूर्ति के लिए मनुष्य को नियमों और संस्कारों की आवश्यकता होती है, दुर्भाग्य से, राक्षसों का पारिवारिक ढाँचा लंबे समय से टूट रहा है, इसलिए नई पीढ़ी संस्कार विहीन है, नियम तभी तक प्रभावशाली हैं, जब तक पालनकर्ता में उचित संस्कार हैं।” 

वे तीनों नमस्कार कर लौट चले। 

राम की गति चलने की इतनी अधिक थी कि सीता पीछे छूट रही थी, लक्ष्मण सीता के साथ थे, दोनों चिंतित थे, वे जानते थे, राम की यह गति उनके विचारों की गति है, अब वह तभी रुकेंगे जब उन्हें कहीं कोई रोशनी की किरण दिखाई देगी। 

राम के क़दम यकायक पर्वत को लाँघने लगे, मानो उनके विचारों की स्पष्टता उन्हें अपनी ओर खींच रही हो। एक स्थान पर आकर राम रुक गए, नीचे मंदाकिनी मंथर गति से बह रह थी, मानो किसी लक्ष्य पूर्ति के लिए भीतर संतोष समेटे बह रही हो। 

राम ने चाँद को देखते हुए कहा, “जीवन में इतना सौंदर्य होते हुए भी, मनुष्य शांत नहीं है।” फिर सीता और लक्ष्मण की ओर देखकर कहा, “मुझे आचार्य की बात उचित प्रतीत हुई, महिलाएँ शिक्षित हों और पाँच वर्ष तक बच्चे को परिवार में संस्कार दें, उसके बाद वह जो करना चाहें, राज्य उनकी लक्ष्य पूर्ति के लिए साधन उपलब्ध कराये। दस से पंद्रह के बीच के वर्ष सभी छात्र-छात्रायें जंगल में बिता प्राकृतिक स्वर, रंग, जीवन, मृत्यु, पशु-पक्षी, पेड़-पौधों का परिचय पायें, और यह अनुभव कर सकें कि यहाँ, सब एक-दूसरे से बँधा है, और हम इसी का भाग हैं।” 

कुछ पल राम शांत रहे, सीता और लक्ष्मण जानते थे कि अभी उन्हें कुछ और कहना है, इसलिए वह चुप रहे। 

फिर राम उठे और उन्होंने लक्ष्मण के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “हमारी मंत्री परिषद में एक दार्शनिक और एक उच्च कोटि के कलाकार का होना अनिवार्य है। दार्शनिक जीवन को दिशा देने के लिए, और कलाकार उसकी रुचि पूर्ण व्याख्या करने के लिए। यह दार्शनिक घूम-घूमकर जन सामान्य के समक्ष अपने विचार रखें, और कलाकार सर्वत्र अपनी प्रस्तुतियाँ दें, ताकि संस्कार सँजोए जा सकें, और हाँ, इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं कि इसमें भिन्न विचारों का स्थान नहीं, अपितु निरंतर विकास के लिए उनका होना आवश्यक है, परन्तु वह तर्कसंगत हों, व्यर्थ का कोलाहल नहीं।”

“वह तो ठीक है भ‍इया, परन्तु इससे हमारी आज की समस्या तो हल नहीं होती।” 

“जानता हूँ, अभी तो इस प्रवृत्ति से जूझना होगा, परन्तु मैं चाहता हूँ सीता तुम अभी से राक्षसों से मेलजोल बढ़ाओ, और उनमें कला के प्रति प्रेम जगाने काप्रयत्न आरम्भ कर दो।” 

“वह मैं अवश्य करूँगी, परन्तु इसकी योजना हम कल बनायेंगे, अभी हमें विश्राम करना चाहिए, न जाने कल का दिन कौन-सी चुनौती लेकर आए।” 

राम और लक्ष्मण दोनों हँस दिये, घर की ओर जाते हुए, उनकी छवि जंगल से एकरूप हो उठी थी। 

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